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कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-२ १३७
से विरत रहा, उतनी देर तक आत्मा के परिणाम शत-प्रतिशत निर्मल तथा शुद्ध रहे। इतने काल तक उसमें न तो कोई रागादि का विकल्प उठा, और न ही कोई कषाय। वह उतनी देर तक पूर्णतया समता अथवा शमता से युक्त रहा। यह थोड़ा-सा काल बीत जाने पर भले ही कर्म उदय में आ जाए, और उसके प्रभाव से जीव में पुनः विकल्प एवं कषाय जागृत हो जाए; किन्तु उपशम काल में तो वह उतनी देर तक पूर्णतया निर्विकल्प तथा वीतराग रहा ही है। यद्यपि यह काल अतीव अल्प होता है. फिर भी मुमुक्षु साधक के जीवन में, बन्ध से मुक्ति की ओर दौड़ लगाने में इसका महत्व बहुत अधिक है। बन्ध से मुक्ति की यात्रा में उपशम का पड़ाव वीतरागता और निर्विकल्पता की झाँकी दिखने वाला पड़ाव है।
(९) निधत्तिकरण : स्वरूप और कार्य बन्ध की नौवीं अवस्था निधत्ति है। कर्मबन्ध की वह अवस्था, जिसमें कर्म अग्नि में तपाई हुई सूइयों की तरह इतना दृढ़तर बंध जाए-इतने गाढ़ रूप से मिल जाए कि उसमें स्थिति और रस में तो परिवर्तन तथा घट-बढ़ सम्भव हो, लेकिन उसमें संक्रमण, उदीरणा एवं आमूलचूल परिवर्तन सम्भव न हो, उसे निधत्तिकरण या निधत्तकरण कहते हैं। अर्थात् निधत्त अवस्था वह है, जिसमें उवर्तन और अपवर्तन के सिवाय शेष करणों के लिए कर्म को अयोग्य कर दिया जाए। आशय यह है कि निधत्त अवस्था में कर्म अपने अवान्तर भेदों में रूपान्तरित नहीं हो सकते हैं और अपना फल उसी रूप में देते हैं। किन्तु इसमें बद्ध कर्मों की काल-मर्यादा (स्थिति)
और रस (विपाक) की तीव्रता को न्यूनाधिक किया जा सकता है। निधत्त भी चारप्रकार का है-(१) प्रकृतिनिधत्त, (२) स्थिति-निधत्त, (३) अनुभाग निधत्त और (४) प्रदेश निधत्त। ... बद्धकर्म की निधत्त अवस्था किसी प्रकृति, वृत्ति--प्रवृत्ति या क्रिया में बार-बार
अधिक रस लेने, उक्त वृत्ति-प्रवृत्ति की पुनरावृत्ति करने से होती है। जिस प्रकार किसी पौधे को बार-बार उखाड़ा जाए या हानि पहुँचाई जाए तो वह सूख-सा जाता है, उसकी फलदान शक्ति नष्ट हो जाती है या किसी बीज को उगाने के लिए जमीन में दबा कर उसे बार-बार निकाला जाए, देखा जाए, बार-बार छेड़ा जाए तो उस बीज की उत्पादन शक्ति नष्ट हो जाती है, वह धरती में रख देने पर सूख जाता है, सड़ जाता है, सत्वहीन हो जाता है। उसमें उगने की शक्ति नष्ट हो जाती है। अथवा किसी को शराब पीने की आदत इतनी बद्धमूल हो जाए कि बार-बार सौगन्ध लेने
१. कर्म सिद्धान्त (जिनेन्द्र वर्णी) पृ. १०८ २. स्थानांग ४/२९६
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