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१२८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
अपवर्तनाकरण का चमत्कार : पापात्मा से पवित्रात्मा तात्पर्य यह है कि अशुभ कर्म का बन्ध होने के पश्चात् यदि जीव अच्छे यानी शुभ कार्य करें तो पहले बंधे हुए बुरे कर्म की स्थिति एवं रस कम हो सकते हैं। इस पर से यही बोध पाठ मिलता है कि यदि किसी व्यक्ति ने अज्ञानता अथवा मोहवश बरा आचरण करके अपना जीवन कलंकित एवं कलुषित बना लिया है, परन्तु समझ आने या ठोकर खाने के बाद यदि वह अपना आचरण सुधार कर सदाचारी और सत्कर्मकर्ता बनना चाहे तो उसके सच्चारित्र के पवित्र भावोल्लास के बल से उसके पहले के बुरे कर्मों की स्थिति तथा कटुता में अवश्य कमी आ सकती है। गिरा हुआ मनुष्य अवश्य ऊँचा उठ सकता है। जिन्होंने एक दिन घोर नरक में ले जाएँ, ऐसे अशुभतर कर्मदलिक का बन्ध कर लिया था, वे पापात्मा भी एक दिन पवित्रात्मा बन गए हैं और अपने दृढ़ चारित्रबल एवं आत्मबल से कर्ममुक्ति के आगेय पथ पर आरूढ़ हुए हैं। उनके उस रत्नत्रय के तथा तपस्या के बल के प्रभाव से घोरातिघोर पापकर्म अल्पकाल में उदय में आकर विध्वस्त हो गए और वे महानुभाव महात्मा बनकर परमात्मपद प्राप्त करने में समर्थ हुए हैं। चिलातीपुत्र, अर्जुनमालाकार, दृढ़ , प्रहारी आदि अनेकों महान् व्यक्ति पापात्मा से महात्मा और परमात्मा बन गए। योगशास्त्र में कहा गया है-"ब्राह्मण, स्त्री, भ्रूण (गर्भस्थ बालक) और गाय, इन सबकी हत्या करने से नरक के मेहमान बनकर जाने वाले दृढ़ प्रहारी और उसके समान अन्य महापापी भी योग (मोक्षमार्गयोजक धर्मपथ) की शरण लेकर संसार सागर को पार कर गए।"१
__ अपकर्षण या उद्वर्तनाकरण भी दो प्रकार का अपवर्तनाकरण या अपकर्षण भी दो प्रकार का है-एक तो सर्वसाधारण जीवों के जीवन में नित्य होने वाला आंशिक अपकर्षण, अमुक आदत में सुधार, सत्संग आदि से अमुक व्यसन का त्याग करना आदि। और दूसरा है-साधकों या तपस्वियों के जीवन में होने वाला पूर्ण अपकर्षण। पहले का शास्त्रीय नाम है-अव्याघात अपकर्षण और दूसरे का नाम है-व्याघात-अपकर्षण। व्याघात अपकर्षण ही मोक्षमार्ग में कार्यकारी है। इसके द्वारा साधक प्रतिक्षण हजारों, लाखों और करोड़ों वर्षों का स्थितिघात, रसघात करता हुआ थोड़े ही समय में कर्मबन्ध से मुक्त हो जाता है।
१. (क) जैनदर्शन (न्यायविजय जी), पृ. ४५६ (ख) ब्रह्म-स्त्री-भ्रूण-गो-घात-पातकानरकातिथेः।
दृढ़प्रहारि प्रभृतेर्योगो, हस्तावलम्बनम्॥-योगशास्त्र १/१२ . २. कर्मसिद्धान्त (जिनेन्द्र वर्णी) पृ. १०३
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