________________
कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-२ १३१ है। तथा एक कर्म अशुभ होता है और उसका विपाक भी अशुभ होता है। कर्म के बन्ध और उदय में यह जो अन्तर आता है, उसका कारण संक्रमण है, अर्थात् बध्यमान कर्म में दूसरे सजातीय कर्म के प्रदेश होने के कारण उसके विपाक (फलदान) में रूपान्तर हो जाना है।
निष्कर्ष यह है कि जिस अध्यवसाय से जीव कर्म के अवान्तर भेद का बन्ध करता है, कालान्तर में उस कर्मप्रकृति के अन्य सजातीय कर्म की तीव्रता के कारण वह पूर्वबद्ध सजातीय प्रकृति के दलिकों को बध्यमान प्रकृति के दलिकों के साथ संक्रान्त कर देता है-परिणत या परिवर्तित कर देता है, यही संक्रमण की परिभाषा है। ___ यद्यपि प्रकृति संक्रमण में पहले बंधी हुई प्रकृति (कर्मस्वभाव) वर्तमान में बंधने वाली सजातीय प्रकृति के रूप में बदल जाती है, लेकिन इसमें आयुकर्म और मोहनीय कर्म अपवाद रूप हैं। चार प्रकार के आयुकर्मों में परस्पर संक्रमण नहीं होता। नरक की आयु बांध लेने पर जीव को नरक में ही जाना होता है, अन्य किसी गति में नहीं जा सकता। इसी प्रकार दर्शनमोहनीय की प्रकृतियों का चारित्रमोहनीय की प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता, न ही चारित्रमोहनीय की प्रकृतियों का दर्शनमोहनीय की प्रकृतियों में संक्रमण होता है। . (२) स्थिति-संक्रमण-कर्मों की स्थिति में परस्पर संक्रमण यानी परिवर्तन होना स्थिति-संक्रमण है। स्थिति संक्रमण तीन अवस्थाओं पर निर्भर है-(१) अपवर्तना पर (२) उद्वर्तना पर और (३) पर-प्रकृतिरूप परिणमन पर। कर्म की स्थिति का घटना अपवर्तना है, बढ़ना उद्वर्तना है और प्रकृति की स्थिति का समान जातीय अन्य प्रकृति की स्थिति में, परिवर्तन होना-प्रकृत्यन्तर-परिणमन होना-संक्रमण है। दूसरे शब्दों में उद्वर्तना, अपवर्तना क्रियाओं द्वारा कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियों में स्थिति-सम्बन्धी परिवर्तन-स्थिति की न्यूनाधिकता होना स्थिति संक्रमण है। . (३) अनुभाग-संक्रमण-अनुभाग (रस) में परिवर्तन होना- परिणामों में परिवर्तन होना अनुभाग-संक्रमण है, अर्थात् कर्मों की फल देने की तीव्र-मन्द शक्ति में परिवर्तन होना अनुभाग-संक्रमण है। स्थिति संक्रमण के समान अनुभाग संक्रमण भी तीन प्रकार का है- अपवर्तना, उद्वर्तना एवं पर-प्रकृतिरूप परिणमन।
(४) प्रदेश-संक्रमण-आत्मप्रदेशों के साथ बंधे हुए कर्म पुद्गलों का अन्य प्रकृति (स्वभाव) का हो जाना प्रदेश संक्रमण है। अर्थात् प्रदेशाग्र का अन्य प्रकृति
१. स्थानांगसूत्र ४/४/३१२
२. (क) स्थानांग. ४/३/२९६ (ख) मोक्ष प्रकाश, पृ. १८, .. (ग) जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, पृ. ३२१
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org