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११० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
और तिर्यञ्च को तो निद्रा आती है, परन्तु देव और नारक को नहीं आती। यह भव (जन्म) हेतुक विपाकोदय है। गति, स्थिति और भव के निमित्त से कई कर्मों का स्वतः विपाक होता है।
. परतः उदय में आने वाले विपाकोदय (१) पुद्गल-हेतुक विपाकोदय-किसी ने पत्थर फैंका, चोट लगने से असाता का उदय हो गया। यह दूसरे के द्वारा दिया गया असातावेदनीय का पुद्गलहेतुक विपाकोदय है। इसी प्रकार किसी ने गाली दी। मन में रोष उमड़ पड़ा। यह क्रोधवेदनीय पुद्गलों का सहेतुक विपाकोदय है। (२) पुद्गल-परिणाम के द्वारा होने वाला विपाकोदय-भोजन किया, किन्तु वह हजम नहीं हुआ। अजीर्ण हो गया। फलतः बीमारी हो गई। यह असातावेदनीय का पुद्गल परिणाम-निमित्तक विपाकोदय है। मदिरा पीने से उन्माद छा गया। फलतः ज्ञानावरणीय कर्म का विपाकोदय हुआ। ये और ऐसे और भी पुद्गलपरिणमन-हेतुक विपाकोदय हो सकते हैं। इस प्रकार अनेक हेतुओं से कर्म का विपाक-उदय होता है। अगर ये हेतु नहीं मिलते तो उन कर्मों का विपाक रूप में उदय नहीं होता। उदय का जो दूसरा प्रकार है, उसमें कर्मफल का स्पष्ट अनुभव नहीं होता। वह है-प्रदेशोदय। इसमें कर्मवेदन की स्पष्टानुभूति नहीं होती।
प्रदेशकर्म अवश्य भोगे जाते हैं, अनुभाग कर्म कुछ भोगे जाते हैं, कुछ नहीं एक बात निश्चित है कि जो कर्मबन्ध होता है, वह अवश्य ही भोगा जाता है। भगवतीसूत्र में इस तथ्य को और स्पष्ट करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-कृत पापकर्म भोगे बिना नहीं छूटते। वे इस प्रकार-"मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाए हैं-प्रदेश कर्म और अनुभाग कर्म। प्रदेशकर्म नियमतः (अवश्य ही) भोगे जाते हैं, किन्तु अनुभागकर्म अनुभाग (विपाक) रूप में कुछ भोगे जाते हैं, और कुछ नहीं भोगे जाते।"३
१. (क) जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, पृ. ३१४
(ख) स्थानांग वृत्ति ४/७६, ४/७६ से ७९ तक (ग) अपतिट्ठए-आक्रोशादि-कारण-निरपेक्षः केवलं क्रोधवेदनीयोदयाद् यो भवति
सोऽ प्रतिष्ठितः। २. (क) प्रज्ञापना सूत्र पद २३/१/२९३
(ख) जैनदर्शन : मनन और मीमांसा; पृ. ३१४, ३१५ ३. भगवती सूत्र १/१९० वृत्ति
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