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कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ - १ १०९
विपाकोदय और प्रदेशोदय तथा उनका फलितार्थ
उदय के मुख्यतया दो भेद हैं- विपाकोदय और प्रदेशोदय । जो कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाता है, झड़ जाता है, वह विपाकोदय या फलोदय है। तथा जो कर्म उदय में आकर भी बिना फल दिये नष्ट हो जाता है, सिर्फ आत्मप्रदेशों में ही वेदन कर (भोग) लिया जाता है, वह प्रदेशोदय कहलाता है। फलोदय की उपमा सधवा युवती से और प्रदेशोदय की उपमा विधवा युवती से दी जा सकती है। यद्यपि जितने भी कर्म बंधे हैं, वे अपना फल ( विपाक) प्रदान करते हैं, किन्तु कई कर्म ऐसे भी होते हैं, जो फल देते हुए भी भोक्ता को फल की अनुभूति नहीं कराते और निर्जीर्ण हो जाते हैं। ऐसे कर्मों का उदय प्रदेशोदय कहलाता है। जैसे-ऑपरेशन करते समय रोगी को क्लोरोफार्म या गैस सुंघाकर अचेतावस्था में जो शल्य क्रिया की जाती है, उसमें वेदना की अनुभूति नहीं होती; वैसे ही प्रदेशोदय में फल की अनुभूति नहीं होती । कषाय के अभाव में ईर्यापथिक क्रिया के कारण जो बन्ध होता है, उसका सिर्फ प्रदेशोदय होता है। इसके विपरीत जो कर्मपरमाणु अपनी फलानुभूति करवाकर आत्मा से निर्जीर्ण हो जाता है, उसका उदय 'प्रदेशोदय' कहलाता है। प्रदेशोदयकाल में विपाकोदय का होना अनिवार्य नहीं है, किन्तु विपाकोदयकाल में प्रदेशोदय का होना अवश्यम्भावी है । १.
सहेतुक और निर्हेतुक उदय : एक चिन्तन
कर्म का परिपाक या उदय अपने आप भी होता है और दूसरों के द्वारा भी । निर्हेतुक भी होता है और सहेतुक भी। कोई बाह्य कारण नहीं है, फिर भी क्रोधवेदनीय पुद्गलों के तीव्र विपाक से अपने आप क्रोध आ गया, इसे निर्हेतुक क्रोध कह सकते हैं। इसी प्रकार हास्य, भय, शोक, वेद (काम) और कषायचतुष्टय के पुद्गलों का भी दोनों प्रकार का उदय होता है।
स्वतः उदय में आने वाले सहेतुक उदय
(१) गतिहेतुक विपाकोदय - देवगति में साता का और नरकगति में असाता (दुःख) का उदय तीव्र होता है, यह गतिहेतुक विपाकोदय हैष (२) स्थितिहेतुक विपाकोदय - मोहनीय कर्म की सर्वोत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व - मोहनीय का तीव्र उदय होता है। यह स्थितिहेतुक विपाकोदय है । (३) भवहेतुक विपाकोदयजिसके उदय से नींद आती है ऐसा दर्शनावरणीय कर्म सबके होता है, किन्तु मनुष्य
१. (क) मोक्षप्रकाश (धनमुनि), पृ. १६
ख) पंचम कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री), पृ. २६
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