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कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय
अवस्थाएँ-२
सम्यक्-पुरुषार्थ से कर्मबन्ध में परिवर्तन संभव है रॉबर्ट ब्रूस पाँच-पाँच बार युद्ध में हार कर निराश हो चुका था। वह थककर, निराश होकर एक दिन अपने बिछौने में लेटा-लेटा सोच रहा था कि क्या करूँ ? कैसे विजय पाऊँ ? इतने में अकस्मात् उसकी दृष्टि एक मकड़े पर गई। वह भी अपने बनाये हुए जाले में फंसा हुआ था, बार-बार पुरुषार्थ कर रहा था, वह जाले को तोड़कर बाहर निकलने के लिए। पाँच बार के पुरुषार्थ में वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ। परन्तु छठी बार वह पूर्ण उत्साह और वेगंपूर्वक आगे बढ़ा और जाला तोड़कर बाहर निकलने में सफल हो गया।
कर्मविज्ञान का यही सन्देश कर्मबन्ध के मकड़ जाल में फंसे हुए संसारी प्राणियों के लिए है। उसका कहना है-कर्मबन्ध का जाल इतना मजबूत नहीं है कि आत्मा के साहसपूर्वक सोत्साह पुरुषार्थ-पराक्रम से तोड़ा या छिन्न-भिन्न न किया जा सके। पिछले निबन्ध में हम कर्मबन्ध के जाल को तोड़ने हेतु बन्धावस्था, सत्तावस्था और उदयावस्था की चर्चा में इस तथ्य को स्पष्ट कर चुके हैं कि मुमुक्षु मानव कैसे कर्मबन्ध के चक्रव्यूह का भेदन करने और बन्ध से मोक्ष की ओर सरपट दौड़ लगाने में सफल हो सकता है।
यब बात अवश्य है कि व्यक्ति को इसके लिए बन्धन कैसा है? किस हेतु से हुआ है? उसकी अवधि कितनी है? उसका अनुभाग कितना था ? वह उदय में आ
१. हिन्दी बाल शिक्षा पांचवाँ भाग में अंकित 'राबर्ट ब्रूस और मकड़ा' नामक पाठ से
संक्षिप्त।
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