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१०८ कर्म विज्ञान : भाग ५ :'कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
बन्ध, सत्ता और उदय-तीनों में घनिष्ठ सम्बन्ध वस्तुतः बन्ध, सत्ता और उदय, इन तीनों कार्मिक अवस्थाओं में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रज्ञापना सूत्र के एक संवाद से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। गणधर गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा-'भगवन् ! जीव कर्मबन्ध कैसे करता है?' भगवान ने कहा-'गौतम ! ज्ञानावरण के तीव्र उदय से दर्शनावरण का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरण के तीव्र उदय से दर्शनमोह का तीव्र उदय होता है। दर्शनामोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है। और मिथ्यात्व के उदय से जीव के आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध होता है।
उदय का फलितार्थ और लक्षण उदय का फलितार्थ है-काल-मर्यादा का परिवर्तन। कर्म की पहली अवस्था बन्ध है, उसकी कालमर्यादा पूर्ण होती है, यह कर्म का अनुदय है-सत्तारूप है। उसके पश्चात् दूसरी कालमर्यादा शुरू होती है, वह उसका उदय है। कर्म का नियत समय पर फल देने के लिए तत्पर होता उदय है। अर्थात्-विपाक (फलदान) का समय आने पर जब कर्म शुभ या अशुभरूप में फल प्रदान करने लगते हैं, उसे उदय कहते हैं। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश से बन्ध को प्राप्त कर्मवर्गणाओं का फलोन्मुख हो जाना, उस कर्म का उदय कहलाता है। जिस प्रकार सूर्य का उदय होते ही प्रकाश और ताप (सुख-दुःखरूप) देना शुरू हो जाता है, वैसे ही बंधा हुआ कर्म उदय में आते ही बांधे हुए शुभाशुभ कर्मों का सुख-दुःखरूप फल देना शुरू हो जाता है। जैसे बीज बोते ही वह फल देना शुरू नहीं करता, बीज कुछ दिन तक जमीन में पड़ा रहता है, फिर अंकुरित, पल्लवित होकर वृक्ष बनाता है, तदनन्तर उसके फल लगते हैं। उसी प्रकार कर्मबीज बोते ही-बंध होते ही-अपना फल नहीं देता, वह सत्ता में रहकर परिपक्व होता है, फिर नियत समय पर उदय में आता है और शुभाशुभ कर्म का यथायोग्य सुख-दुःखरूप फल देना शुरू करता है। निष्कर्ष यह है कि कर्मों के स्व-स्व-फल देने की अवस्था का नाम उदय है। उदयावस्था में बद्धकर्म अपना फल देना प्रारम्भ करते हैं।
१. (क) कर्म-रहस्य (जिनेन्द्र वर्णी), पृ. १७
(ख) प्रज्ञापना पद २३/१/२८९ २. (क) जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, पृ. ३१३
(ख) जैनदर्शन (न्यायवियजी) पृ. ४५७ (ग) कर्म की गति नारी भा. १, पृ. १७५ (घ) सर्वार्थसिद्धि २/१, ६/१४ (ङ) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. ४३९
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