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कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१ ११३ फलाभिमुख हुए कर्मों को हंसते-हंसते समभाव से भोग कर अल्पकाल में ही निःसत्त्व कर डालते हैं। आठों कर्मों में मोहनीय कर्म ही अन्य कर्मों का जनक और पोषक है। उस कर्म से ही अन्य सब कर्मों को पोषण मिलता है। इसलिए ज्ञानीपुरुष मोहनीय कर्म के उदयकाल में बहुत ही सावधान रहकर उससे प्रकट होने वाले निमित्त में जरा भी रंजित न होकर अल्पकाल में ही उसे भोग लेते हैं, साथ ही वे उससे घबराकर नये भावकर्म भी नहीं बांधते। इस कारण अन्य तीन घातिकर्मों को भी नया पोषण नहीं मिलता। इस कारण वे तीनों अपनी स्थिति के अनुसार उदयमान रहकर बिखर जाते हैं। और अन्त में, वह पुरुषवर्य परमसिद्धि का वरण कर लेता है। मोहनीय कर्म के उदयकाल में अगर आत्मा तत्प्रायोग्य कषायभाव से न जुड़कर उससे प्रगट होने वाले निमित्त में स्व-भावरूप से परिणामों से परिणमन न करे और तटस्थ-ज्ञाता-द्रष्टा रहकर समभाव से उसे भोग ले तो आत्मभावों के तारतम्य के अनुसार न्यूनाधिक काल में उस कर्म का विलय हो जाता है। इससे पुनः कार्यकारणभाव की परम्परा लम्बी नहीं होती।
निर्बल आत्मा ही कर्म का आधिपत्य स्वीकारते हैं, बलवान् नहीं निष्कर्ष यह है कि आत्मा और कर्म का केवल निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है; तादात्म्य सम्बन्ध या समवाय सम्बन्ध नहीं है। इसलिए आत्मा पर कर्म का किसी प्रकार का बलात्कार है ही नहीं। केवल निर्बल आत्मा ही हैं, जो कर्म की सत्ता (आधिपत्य) स्वीकार करते हैं। जिन्होंने निमित्त की सत्ता का पराभव कर दिया है, वे वीरपुरुष संयमसिद्ध हैं। और जिन्होंने आत्मा पर विजय (Self Mastery) प्राप्त कर ली है, उन्हें तो कर्म के उदय से कोई भीति है ही नहीं। ऐसे बलवान् आत्मा तो यही मानते हैं कि. उदयमान कर्म मेरे द्वारा प्रादुर्भूत बच्चे हैं। पूर्वकाल में अज्ञानदशा में मैंने ही उन्हें अपनाये हैं, बांधे हैं, अतः अब अनासक्तरूप से उन्हें निभा लेना चाहिए, यों समझ कर रोये-धोये बिना, खिन्न या क्षुब्ध हुए बिना वह उन कर्मों से भेंटता है
और सम्यग्ज्ञान के दिव्य प्रकाश द्वारा पुनः नये कर्म न बंधे, इस प्रकार उदयाभिमुख हुए कर्मों को अल्पकाल में ही भोग लेता है।
- ज्ञानी और अज्ञानी दोनों के परिणामों में अन्तर ___ ज्ञानी और अज्ञानी, सबल (आत्मबली) और निर्बल (कायर) में अन्तर इतना ही है कि ज्ञानीजन निमित्त के वशीभूत होने हेतु कभी ललचाते नहीं, और कदाचित् पहले बांधी हुई कर्मप्रकृति के अनुभाग के बाहुल्य से ललचाए, तो भी वे अपनी १. कर्म अने आत्मानो संयोग, पृ. ९ से ११ तक
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