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९२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
कषायभाव कहाँ तक और उसके बाद की अवस्थाएँ कौन-सी हैं दसवें गुणस्थान तक व्यक्त या अव्यक्तरूप में कषायभाव रहता है। तब तक कषाय भाव के बिना कोई भी आत्मा रह नहीं सकता, परन्तु यदि क्षपकश्रेणी द्वारा साधक पुरुषार्थ करे तो वह अकषायी होकर मोहनीयकर्म का क्षय करके शेष तीन घाति कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है, वीतराग बन जाता है। जिस क्षण अकषायी होकर मोहनीयकर्म का क्षय करता है, उसी क्षण कैवल्य की उपलब्धि हो जाती है। परन्तु पूर्वबद्ध कर्म जब तक सत्ता में पड़े हों, तब कषायभावों में न्यूनता या अधिकता, अथवा उपशान्तता, मन्दता या क्षीणता आदि उपशम, क्षयोपशम एवं क्षय अवस्था या उदीरणावस्था द्वारा होनी सम्भव है।
आयुष्यबन्ध : जीवन भर के शुभाशुभ भावों के आधार पर इन कषायों के कारण आत्मा प्रतिसमय आयुष्य के सिवाय सात कर्म बांधता है। आयुष्य कर्म का बन्ध जिन्दगी में एक ही बार होता है, और जब आयुष्य बन्ध होता. है, तब सम्पूर्ण जिन्दगी में सेवन किये हुए शुभाशुभ भावों के तारतम्य के अनुसार बंधता है।
कषाय के बहुत्व-अल्पत्व पर स्थिति और अनुभागबन्ध की वृद्धि हानि - कषाय का बाहुल्य हो तो उसके द्वारा पाप प्रकृति की स्थिति का बन्ध अधिक, होता है, और कषाय के अल्पत्व से देव और मनुष्य से सम्बन्धित आयुष्य की स्थिति लम्बी और उसके बहुत्व से अल्प बंधती है। घातिकर्म की समस्त प्रकृतियों में और अघातिकर्म की पाप प्रकृति में कषाय का अल्पत्व हो तो अनुभागबन्ध अल्प पड़ता है, जबकि उनके साथ कषाय का बाहुल्य हो तो उसके कारण अनुभागबन्ध अधिक पड़ता है। इसी प्रकार कषाय की अल्पता (न्यूनता) से पुण्यप्रकृति का अनुभागबन्ध बढ़ जाता है और बहुत्व से न्यून होता है। इस प्रकार विविध कषायों को लेकर स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध की मात्रा नियंत्रित (नियमबद्ध) होती है।
__योगों की अति चंचलता और कषाय की अल्पता का परिणाम जहाँ योगों की अतिचंचलता और कषाय की अल्पता होती है, वहाँ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध न्यून होता है, परन्तु योग द्वारा उपार्जित कर्म-प्रकृति का प्रदेश बहुत विस्तार वाला होता है, क्योंकि प्रदेश का नियामक योग है। हम अपने व्यावहारिक जीवन में भी अनेक बार ऐसा अनुभव करते हैं कि व्यक्ति-विशेष का
१. कर्म अने आत्मानो संयोग, पृ.-२४, २५
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