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कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१ १०१ अर्हत, जीवन्मुक्त परमात्मा के योगों के कारण आस्रव तो होता है, किन्तु रागादि रूप उपयोग के अभाव के कारण वे कर्म बन्ध को प्राप्त नहीं होते। बल्कि अनन्तरवर्ती उत्तर-समय में ही सूखे वस्त्र पर पड़ी हुई धूल के समान झड़ जाते हैं। दूसरी ओर कषाययुक्त जीवों में योग तथा विकृत उपयोग होने से आस्रव तथा बन्ध दोनों होते हैं। अर्थात् उस साम्परायिक बंध में कुछ काल तक वहाँ टिके रहने (स्थितियुक्त होने) की शक्ति भी प्रकट हो जाती है, तथा उस कर्म का संस्कार (अनुभाग) जीव के चित्त पर इस प्रकार अंकित होकर बैठ जाता है कि वह सहसा शीघ्र दूर नहीं हो पाता।
साम्परायिक बन्ध के दो प्रकार साम्परायिक बन्ध भी शुभ और अशुभ दो प्रकार का होता है। शुभ परिणामों से शुभ या पुण्य-प्रकृतियों का और अशुभ परिणामों से अशुभ या पाप-प्रकृतियों का बन्ध होता है। शुद्ध परिणामों से-यानी समता तथा शमता से युक्त परिणामों से बन्ध नहीं होता। शुद्ध परिणाम बन्ध के कारण नहीं है, बल्कि पूर्वकृत बन्ध को काटने के हेतु हैं। यद्यपि शुभ, अशुभ या शुद्ध तीनों परिणाम किसी संसारी जीव में अकेलेअकेले नहीं पाये जाते, इन तीनों या दोनों का मिश्रित रूप ही पाया जाता है। परन्तु मिश्रित परिणाम का कथन जटिल होने से शुभ-अशुभ दोनों में से जिस परिणाम का बाहुल्य होता है, उसी परिणाम को मुख्यता से शुभ या अशुभ कहा जाता है।२
दौर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने हेतु बन्ध अवस्था की प्रेरणा - सौभाग्य या दौर्भाग्य शुभ-अशुभ कर्मबन्ध के अधीन हैं। इसलिए जो व्यक्ति सौभाग्य चाहते हैं, और दुर्भाग्य से बचना चाहते हैं, उन्हें हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहवृत्ति तथा क्रोधादि कषाय, अशुभ रागादि परिणाम, दुर्भाव, दुर्वचन और दुश्चेष्टा आदि अशुभ प्रवृत्तियों-अशुभ कर्मबन्ध के कारणों से बचना चाहिए। जिस प्रकार आहार के रूप में ग्रहण किए हुए अच्छे पदार्थ शरीर के लिए हितकर और सुखकर तथा बुरे पदार्थ अहितकर एवं रोगादि दुःखकर होते हैं, इसी प्रकार आत्मा द्वारा ग्रहण किये हुए शुभ कर्म परमाणु उसके लिए शुभफलदायक, सुखदायक एवं सौभाग्यबर्द्धक होते हैं, जबकि ग्रहण किये हुए अशुभ कर्मपरमाणु उसके लिए
3. (क) कर्म-सिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्रवर्णी) से भावांश ग्रहण, ८४, ८५
(ख) सकषायाऽकषाययोः साम्परायिकैर्यापथयोः । -तत्वार्थ सूत्र ६/५ . (ग) उत्तराध्ययन सूत्र अ.२९ बोल ७१वाँ २. (क) शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य।
-तत्वार्थ सूत्र ६/३ । (ख) कर्म-सिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. ८१
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