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कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ - १ ९७
मंत्रित कंकरी डालकर विष उतार देता है। ऐसे प्रसंग में कंकरी में कोई शक्ति नहीं होती, किन्तु कंकरी में आरोपित मंत्रों की आत्मा के सामर्थ्य का ही प्रभाव होता है । वैसे ही कर्म में वस्तुतः कोई सामर्थ्य नहीं होता, परन्तु जीव द्वारा आरोपित आत्मा के रागद्वेष या कषाय का ही बल होता है । राग-द्वेष, आत्मा में से प्रादुर्भूत एक सामर्थ्यविशेष है। और उस सामर्थ्य द्वारा गर्भित हुई कर्मवर्गणा ही फलप्रदान करने में समर्थ होती है।
जैसे- ग्रामोफोन के रेकार्ड के साथ सम्बन्धित लोहे की पिन में शब्द उत्पन्न करने की जो शक्ति होती है, वह विद्युत की सूक्ष्म शक्ति द्वारा ही संक्रान्त हुई होती है लोहे की पिन तो उस सूक्ष्म शक्ति की वाहक ही है । उसी प्रकार यहाँ भी कार्मण वर्गणा में फल प्रदान करने का जो बल है, वह सिर्फ आत्मा के कषाय भाव का ही बल है। जब कर्मप्रकृति अपना विशिष्ट फल दे चुकती है, तब जो जड़पिण्ड कार्मण शरीर के साथ बहुत दफा पहले की तरह ही जुड़ा हुआ भी रहता है, फिर भी वह कभी किसी प्रकार की हानि या लाभ नहीं कर पाता, क्योंकि फल प्रदान करने के पश्चात उसकी ऊर्जा (Energy) समाप्त हो जाती है। बद्धकर्म का फल देने के लिए किसी अन्य शक्ति की या नियंता की अपेक्षा नहीं रहती। इसे हम कर्मफल के विविध आयाम नामक पंचम खण्ड में स्पष्ट कर चुके हैं । २
मुख्य बन्धहेतुक कषायों से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति
कषाय आत्मा की वैभाविक शक्ति है, वह बन्धन का प्रबल कारण है, इसीलिए कहा गया है - ' कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ।' जीव में रागादि भावों (विभावों) तथा काषायिक भावों से आकर्षण शक्ति उत्पन्न होती है। उससे कर्म - परमाणुओं का-कार्मण वर्गणाओं का खिंचाव होता है, फिर वे आत्मप्रदेशों के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं। वही कर्मबन्ध है, इससे मुक्ति पाना ही वास्तविक मुक्ति है। इसलिए बन्ध के पूर्वोक्त चारों रूपों तथा उनमें भी योगों और कषायों की न्यूनाधिकता के कारण होने वाली विभिन्न अवस्थाओं को समझना अत्यावश्यक है। वास्तव में यह बन्धन बाहरी (द्रव्य बन्धन) न होकर हमारे रागादि या कषायोत्पन्न अध्यवसायों से निर्मित बन्ध
१. कर्म और आत्मानो संयोग, पृ. ३२-३३
२. देखें - कर्म विज्ञान, पंचम खण्ड 'कर्म का कर्ता कौन, फल भोक्ता कौन ?' तथा 'कर्म का फलदाता कौन ?' शीर्षक लेख ।
३. देखें, कर्मविज्ञान के चतुर्थ भाग सप्तम खण्ड में - ' कर्मबन्ध के अंगभूत चार रूप'
शीर्षक निबन्ध ।
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