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कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१ ९५ को सहसा कोई भी व्यक्ति समझ भी नहीं सकता। उनके क्रोध, मान, माया और लोभ की आन्तरिक वासनाएं, लालसाएँ और महत्वाकांक्षाएँ अत्यन्त प्रबल होती हैं और उनकी छाती के भीतर छिपाये हुए रागद्वेष के खंजर इतने तीखे, नोकदार और खूनी होते हैं कि वे अपने कार्य या तुच्छ संकीर्ण स्वार्थ के लिए सिर्फ अवसर की ताक में बैठे रहते हैं। तथापि बाह्य दिखावे में तो सरिता के किसी एकान्त शान्त तट पर ध्यानमग्न तपश्चर्यारत चतुर वगुले जैसे, वाणी और काया के संयम वाले तथा फूंकफूंककर चलने वाले भव्य भावुक प्रतीत होते हैं। साधारण अज्ञ जन और समाज ऐसे व्यक्तियों की ओर इनकी योग-प्रकृति के अल्पत्व के स्तर पर से या फूंक-फूंक कर चलने या क्रिया करने पर से प्रभावित होकर उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हैं। परन्तु वास्तव में योगों की न्यूनाधिकता, सत्य या न्याय को नापने का सच्चा मीटर नहीं है। वीतराग परमात्मा के घर का न्याय या सत्य की नापतौल आन्तरिक रागद्वेष वाली या कषाय की स्थिति पर से ही होती है।
कर्मबन्ध की फल नियामक कसौटी यह नहीं है कि कोई व्यक्ति सफेद, पीले, लाल या भगवे वस्त्रों से सुसज्जित होकर एकान्त में आसन मारकर हिले-डुले बिना अडोल बैठा है, अथवा इसके विपरीत कोई व्यक्ति धुंआधार सार्वजनिक प्रवृत्ति अथवा अहर्निश प्रवृत्ति करता है, वह क्षण भर भी निकम्मा नहीं बैठता; इन दोनों वृत्ति-प्रवृत्तियों पर से उसके कर्मबन्ध तीव्र अनुभाग या दीर्घ स्थिति रूप नहीं होगा। फल शक्ति उसकी आत्मा के कषायभाव पर अवलम्बित है। अन्तर में कषायभाव तीव्र एवं प्रबल है तो बाहर की क्रिया, प्रवृत्ति या योगों की स्थिरता मात्र से कर्मबन्ध का नापतौल नहीं होता। मनुष्य दौड़धूप करता हो, अथवा आसन मारकर अडोल . बैठा हो, उस पर से कर्मबन्ध का अभाव घटित नहीं होता, न ही उसकी न्यूनता परिलक्षित होती है। कर्मबन्ध का नापतौल इसी पर से किया जाता है कि जीव (आत्मा) कषायभाव के साथ कितना स्निग्ध और विमुग्ध बना है, अथवा वह रागद्वेष से कितना निकट और दूर रहा है।
- योगों का संकोच, किन्तु कषायों की तीव्रता : कर्मबन्ध गाढ़ आज का जैन समाज ही नहीं, मानव समाज भी प्रायः बाह्य योग प्रवृत्ति के निरोध को ही सर्वस्व गिनता है, उसके दैनन्दिन व्यवहार में वह कितना तीव्र कषाय करता है, कितने प्रबल रागद्वेष का सेवन करता है, इसका भान तक उसे नहीं रहता। बहुधा वह कषाय के स्वरूप से भी अनभिज्ञ रहता है, जिस कषाय और राग-द्वेष
१. कर्म अने आत्मानो संयोग, पृ.-२९-३०
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