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८८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
(१) प्रथम अवस्था-बन्ध : स्वरूप, महत्त्व और प्राथमिकता जीव और कर्म का एक क्षेत्रावगाही होकर नीर-क्षीरवत् या लोह-अग्निवत् बैंध. जाना, अथवा सोने और चांदी को एक साथ पिघलाने पर दोनों का मिलकर एक रूप हो जाने की तरह कर्मप्रदेशों का आत्मप्रदेशों के साथ मिलकर एकरूप हो जाना बन्ध है। दूसरे शब्दों में-मिथ्यात्व आदि आस्रवों के निमित्त से जीव के असंख्य आत्मप्रदेशों में हलचल (कम्पन) पैदा होती है। फलतः जिस क्षेत्र में आत्मप्रदेश हैं, उसी क्षेत्र में विद्यमान अनन्तानन्त कर्मयोग्य (कर्मरूप से परिणत होने वाले). पुद्गलों का आत्मा के प्रत्येक प्रदेश के साथ बँध जाना, चिपक जाना बन्ध है। इस प्रकार जीव और कर्म के संयोग की प्रथम अवस्था बन्ध है।
बन्ध की अवस्था के विषय में महत्त्वपूर्ण तथ्य पहली बात-यह कर्मबन्ध की पहली महत्वपूर्ण अवस्था है। इसके बिना और कोई अवस्था हो नहीं सकती, क्योंकि कर्म की शेष अवस्थाएँ इसी पर निर्भर हैं। व्यावहारिक दृष्टि से सोचें तो मूल पूंजी ही न हो तो उसके बिना व्यवसाय कैसे होगा? या धन कमाया ही नहीं है तो बैंक में कहाँ से जमा किया जाएगा? इसी प्रकार कर्म बांधा ही नहीं है तो उसमें उत्कर्षण, अपकर्षण या संक्रमण कैसे किया जाएगा? अथवा कर्मबन्ध ही न होगा तो सत्ता में कहाँ से पड़े रहेंगे। अथवा शुभ या अशुभ किसी प्रकार का कर्म बांधा ही नहीं है, तो निधत्त, निकाचित, उदय आदि दूसरी अवस्थाएँ भी कैसे सम्पन्न होंगी? अतः कर्मबन्ध की अवस्था एक तरह से मूलभूत बीज की अवस्था है। बीज होगा तो उससे अच्छे-खराब फल, फूल, वृक्ष आदि बनेंगे, अन्यथा कैसे बनेंगे ? इसी प्रकार कर्म-बीज होगा तो उससे उदय, उदीरणा, उपशम, क्षयोपशम, सत्ता आदि अवस्थाएँ होंगी। इसीलिए कर्मशास्त्र में कहा गया है-प्रत्येक जीव के प्रतिसमय आयुष्य को छोड़ कर सात प्रकृतियाँ बंधती हैं। उनमें एक प्रकृति मुख्य होती है, शेष प्रकृतियाँ गौण। __दूसरी बात-कर्म के इन सूक्ष्म पुद्गल स्कन्धों का जो ग्रहण होता है, वह आत्मा के समग्र प्रदेशों द्वारा होता है, न कि किसी एक ही दिशा में रहे हुए आत्मा के प्रदेशों द्वारा।
१. (क) जैनदर्शन (न्या. न्या. न्यायविजयजी) __ (ख) कर्म की गति न्यारी भा. १ (ले. पं. अरुणविजयगणि), पृ. १७५
(ग) मोक्षप्रकाश (धनमुनि), पृ. ११ (घ) भगवती सूत्र १/१/१२ (ङ) गोम्मटसार ४३८-४०
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