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८६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ दोनों में परिवर्तन हुआ। अतः उक्त कर्मबन्धकर्ता को उदय में आने से पूर्व बन्ध की जैसी अवस्था होती है, तदनुसार फल मिलता है। यदि कर्मबन्ध की पूर्व-स्थिति के अनुसार ही बाद में फल मिलता तो फिर शुभ कर्म करने या जीव को सुधरने का, आगे बढ़ने का मौका ही नहीं मिलता। सिंह, सर्प जैसे कर प्राणी भी नम्र और अहिंसक बन सकते हैं, तो मनुष्य क्यों नहीं अहिंसक, दयालु और नम्र बन सकता?
द्वितीय शंका का समाधान - दूसरी शंका का समाधान यह है-माना कि रागद्वेषादि परिणामों के अनुसार कर्मबन्ध होता है, फिर उदय में आने पर उसका फल मिलता है, फलभोग के समय फिर रागादि परिणाम, फिर बन्ध, इस प्रकार कर्मबन्ध की अटूट श्रृंखला चलती है। परन्तु बीच में यदि उन पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय के लिए व्यक्ति त्यांग, प्रत्याख्यान, बाह्य-आभ्यन्तर तप, व्रताचरण, संयमपालन, सम्यग्दर्शनादि धर्म का पालन, परीषहविजय, कषायों का शमन आदि करता है तो कर्म-बन्ध की उक्त श्रृंखला टूट भी सकती है, उसमें मन्दता भी आ सकती है। दीर्घकालिक बन्ध अल्पकालिक और तीव्ररस मन्दरस में परिणत हो सकता है। कई बार तो रागद्वेष-कषायादि विकारों से रहित मनःस्थिति, तीव्र संवेग, तथा उत्कट वैराग्य के परिणाम एवं तीव्र पश्चाताप की धारा में अवगाहन करते-करते व्यक्ति के रहे-सहे सभी घातिकर्म बहुत ही थोड़े क्षणों में नष्ट हो जाते हैं। बाद में आयुष्य की स्थिति के अनुसार शेष रहे चार अघातिकर्म भी सर्वथा नष्ट होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त-अवस्था प्राप्त हो जाती है। __ अर्जुन मालाकार, दृढ़प्रहारी, चिलातीपुत्र आदि क्रूर एवं हिंसक, लुटेरे और हत्यारे बने हुए व्यक्ति भी तीव्र संवेग, उत्कृष्ट क्षमा, कषायोपशमन एवं उत्कट वैराग्य भावों के आने से एक दिन समस्त कर्मों को सर्वथा नष्ट करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बन जाते हैं। यदि ऐसा परिवर्तन होना सम्भव न होता तो कर्मबन्ध की अवस्थाओं में परिवर्तन या कर्मों का उपशम, क्षयोपशम, क्षय, उदीरणा आदि के लिए व्रत, नियम, त्याग, तप, प्रत्याख्यान आदि या सम्यग्दर्शनादि सद्धर्म का आचरण कोई क्यों करता?
इस प्रकार से होने वाली सकामनिर्जरा की बात छोड़ दें, तो भी प्रत्येक संसारी जीव के जीवन में प्रतिक्षण बिना इच्छा के, विवशतापूर्वक जन्म, जरा, मृत्यु व्याधि आदि के दुःखों को सहने से अकामनिर्जरा भी होती रहती है। उससे पूर्वबद्ध कर्मों के उदय में आने पर उनका फल भोग लेने पर कर्मों का आंशिक क्षय भी होता रहता है। यदि ऐसा न होता तो नरकगति और देवगति का इतना लम्बा आयुष्य कैसे क्षीण होता और कैसे जीव अपने शुभ-अशुभ कर्मानुसार विविध गतियों और योनियों में जाता? कैसे जीव एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि में उत्पन्न होता और एक दिन मनुष्यगति को प्राप्त करता? इसीलिए 'उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा गया है
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