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ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय-सत्ता-सम्बद्धा प्रकृतियाँ ५३ इसीलिए तो उनको अध्रुवोदया कहते हैं। इनके उदय का विच्छेद होने पर भी पुनः उदय हो सकता है, यही इनकी विशेषता है। इस प्रकार ९५ प्रकृतियों को कर्मशास्त्र में अध्रुवोदया माना गया है। ___यहाँ एक शंका होती है कि यदि अध्रुवोदया की यही परिभाषा है तो मिथ्यात्व
को भी अध्रुवोदय कहना चाहिए, क्योंकि सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर भी उसके उदय का विच्छेद हो जाता है, इस प्रकार सम्यक्त्व छूट जाने पर पुनः उसका उदय होने लगता है। __इसका समाधान यह है कि उदय के विच्छेद न होने पर भी द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के निमित्त से जिन प्रकृतियों का उदय कभी होता है और कभी नहीं होता, उन्हें अध्रुवोदया कहते हैं। जैसे-बारहवें गुणस्थान तक 'निद्रा' प्रकृति का उदय बतलाया गया है, किन्तु उसका उदय सर्वदा नहीं होता, जबकि मिथ्यात्व कर्म में ऐसी बात नहीं है। उसका (मिथ्यात्व) उदय केवल पहले गुणस्थान में प्रवाहरूप से निरन्तर रहना बतलाया गया है। प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्व के उदय का प्रवाह एक क्षण के लिये भी रुकता नहीं है, इसलिये वह ध्रुवोदया ही है।
. ध्रुवसत्ताका और अधुवसत्ताका प्रकृतियाँ . बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १२० हैं और उदययोग्य हैं १२२; किन्तु सत्तायोग्य प्रकृतियाँ कुल १५८ हैं। जिनके नाम कर्मग्रन्थ प्रथम में स्पष्ट किये गए हैं-ज्ञानावरणीय की ५, • दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीय की २८, आयु की चार, नामकर्म की १०३, गोत्रकर्म की दो और अन्तरायकर्म की पांच, यों सब मिलाकर ५+९+२+२८+४+१०३+२+५=१५८ प्रकृतियाँ सामान्यरूप से सत्ता में मानी जाती हैं।
इन ध्रुव-अध्रुव सत्ता-योग्य १५८ प्रकृतियों की संज्ञाओं और उनमें गर्भित प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं
सवीशक-त्रसदशक (त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यश:कीर्ति), तथा स्थावर-दशक (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, . अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयश:कीर्ति)। .
वर्णवीशक-पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध, और आठ स्पर्श।
तैजस-कार्मण-सप्तक-तैजसशरीर, कार्मणशरीर, तैजस-तैजस-बन्धन, तैजसकार्मण-बन्धन, कार्मण-कार्मण-बन्धन, तैजस-संघातन और कार्मण-संघातन।
१. पंचम कर्मग्रन्थ, विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी), पृ. २०
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