________________
५४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
आकृति - त्रिक - (१) छह संस्थान - समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, कुब्ज, वामन और हुण्डक । (२) छह संहनन - वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराचं, नाराच, अर्धनाराच, कीलक, सेवार्त । (३) पांच जाति - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति ।
युगलद्विक- हास्य और शोक एक युगल, रति और अरति दूसरा युगल ।
औदारिक सप्तक - औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, औदारिक संघात, औदारिक- बन्धन, औदारिक- तैजस बन्धन, औदारिक- कार्मणबन्धन, औदारिकतैजस-कार्मण-बन्धन |
उच्छ्वास-चतुष्क-उच्छ्वास, आतप, उद्योत और पराघात । खगति - द्विक- शुभविहायोगति और अशुभविहायोगति ।
तिर्यंच- द्विक- तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी ।
मनुष्यद्विक- मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी ।
वैक्रिय- - एकादश-देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रिय - शरीर, वैक्रिय- अंगोपांग, वैक्रिय-संघात, वैक्रिय-वैक्रिय-बन्धन,, वैक्रिय - तैजस-बन्धन, वैक्रिय - कार्मण-बन्धन, वैक्रिय - तैजस-कार्मण - बन्धन ।
आहारक- सप्तक - आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, आहारक- संघातन, आहारक आहारक-बन्धन, आहारक- तैजस-बन्धन, आहारक- कार्मण-बन्धन, आहारक- तैजस-कार्मण बन्धन ।
इन संज्ञाओं में गृहीत प्रकृतियों तथा कुछ प्रकृतियों के नाम-निर्देश - पूर्वक ध्रुवअध्रुव-सत्ता वाली प्रकृतियों की अलग-अलग संख्या पंचम कर्मग्रन्थ में बतलाई गई है। ध्रुवसत्ता और अध्रुवसत्ता, दोनों सत्ता वाली प्रकृतियों की मिलाकर १५८ संख्या
है।
ध्रुवसत्ताका एक सौ तीस प्रकृतियाँ
इन १५८ प्रकृतियों में से १३० प्रकृतियाँ ध्रुवसत्ताका हैं। वे इस प्रकार हैं - त्रसदशक, स्थावरदशक, पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, आठ स्पर्श, ये वर्णादि
१. (क) तस - वन्नवीस सगतेयकम्म ध्रुवबंधि सेस वेयतिगं । आगिइति वेयणियं दुजुयल सगउरल सासचऊ ॥ ८ ॥ खगई- तिरि- दुग नीयं धुवसंता संम मीस मणुयदुगं । विडविक्कार जिणाऊ हारसगुच्चा अधुवसंता ॥ ९॥ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ८, ९ विवेचन, ( मरुधरकेसरीजी), पृ. ३७ से ३९
- पंचम कर्मग्रन्थ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org