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विपाक पर आधारित चार कर्मप्रकृतियाँ ७३ आत्महत्या करके मर जाता है। इन सब में भावों के निमित्त से असातावेदनीय के विपाक को आमंत्रित किया गया है।
जीव अष्टविध कर्मों के विपाक के योग्य कब और कैसे बनता है ? इसके अतिरिक्त वहाँ कर्म-विपाक की प्रक्रिया का सूक्ष्म निरूपण करते हुए कहा गया है कि अष्टविध कर्मों के ये विपाक (अनुभाव) उसी जीव को प्राप्त होते हैं, जिसके द्वारा अमुक-अमुक कर्म पहले स्पृष्ट (आस्रवरूप से आकर्षित) हों, तत्पश्चात् बद्ध हों, फिर बद्ध-स्पृष्ट हों, तदनन्तर 'चित' (संचित) हुए हों, (सत्ता में पड़ें हों); और उपचित (क्रमशः बढे हों, फिर आपाक प्राप्त (थोड़ा-सा फल देने के अभिमुख हुए) हों, विपाक प्राप्त (विशेष फल देने को अभिमुख हुए) हों, फल प्राप्त (फल प्रदान के अभिमुख हुए) हों, और उदय प्राप्त (समस्त सामग्रीवशात् उदय में आए) हों। कर्मविपाक के योग्य भी वही जीव होता है, जिसने कर्म (कर्मों का आस्रव और बन्ध) किया हो, निष्पादित (ज्ञानावरणीय आदि के रूप में व्यवस्थापित) किया हो, तथा परिणामित (राग-द्वेष या क्रोधादि कषायों एवं हास्यादि नोकषायों के परिणामों से उत्तरोत्तर परिणाम प्राप्त) हों।
इस प्रकार स्पृष्ट, बद्ध, बद्ध-स्पृष्ट, चित, उपचित, आपाक प्राप्त, विपाक प्राप्त, फल प्राप्त, उदय प्राप्त, स्वयं कर्म-कृत, निष्पादित एवं परिणामित इन १२ प्रक्रियाओं के कारण कर्म विपाक योग्य बनता है।
पूर्वोक्त प्रक्रिया एवं विपाक के विविध कारणों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि वह विपाक जीव, पुद्गल, क्षेत्र और भव के निमित्त से जीव को प्राप्त होता है, परन्तु होता है, वह विविध मूल कर्मप्रकृति के अनुसार। विपाक जिस निमित्त से होता है, उस कर्मप्रकृति का नाम भी उस प्रकृति को पहचानने के लिए कर्मविज्ञानविज्ञों ने तदनुसार ही रख दिया है।
विपाक के चार हेतु : क्षेत्र, जीव, भव और पुद्गल - विपाक को रसोदय भी कहा जाता है। अतः रसोदय के चार प्रमुख स्थान हैं-(१) क्षेत्र, (२) जीव, (३) भव और (४) पुद्गल। इसीलिए 'पंचसंग्रह' में
१. (क) चेतना का ऊर्ध्वारोहण से भावांशग्रहण, पृ. २०१, २०२
(ख) मैं, मेरा मन, मेरी शान्ति से भावांश ग्रहण, पृ. २११ .. २. (क) प्रज्ञापना पद २३, पंचम अनुभावद्वार (ख) बद्ध, स्पृष्टं आदि विशिष्ट पदों के अर्थ, विशेषार्थ आदि के लिए प्रज्ञापना पद
२३ का पाँचवाँ अनुभावद्वार देखें।
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