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७६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ उदय होने पर जीव को ही भव (जन्म) धारण करना पड़ता है। इसी प्रकार क्षेत्रविपाकिनी आनुपूर्वी भी श्रेणी के अनुसार गमन करने रूप जीव के स्वभाव को स्थिर रखती है। तथैव पुद्गल-विपाकिनी कर्मप्रकृतियाँ भी जीव में ऐसी शक्ति (फलदान-शक्ति) पैदा करती हैं, जिससे वह अमुक प्रकार के पुद्गलों को ही ग्रहण करता है; तथापि क्षेत्रविपाकिनी, भवविपाकिनी और पुद्गल-विपाकिनी कर्मप्रकृतियाँ क्षेत्र आदि की मुख्यता से अपना फल देती हैं; जबकि जीवविपाकी कर्मप्रकृतियाँ क्षेत्र आदि की अपेक्षा रखे बिना ही जीव (आत्मा) के ज्ञान, दर्शन आदि गुणों में तथा इन्द्रिय, उच्छ्वास आदि में अनुग्रह-उपघात रूप साक्षात् फल जीव में ही देती हैं। जैसे कि ज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियों के उदय से जीव ही अज्ञानी होता है। इसी तरह दर्शनावरणीय कर्म-प्रकृतियों के उदय से जीव के ही दर्शन-गुण का घात होता है; शरीरादि में उनका कोई फल दृष्टिगोचर नहीं होता। मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उदय से जीव के ही सम्यक्त्व एवं चारित्र गुण का घात होता है। पंचविध अन्तराय कर्म के उदय से जीव ही दान आदि की उपलब्धि न , तो प्राप्त कर पाता है और न ही दे पाता है। साता-असातावेदनीय कर्म-प्रकृतियों के उदय से जीव ही सुखी-दुखी होता है, सुख-दुख की अनुभूति करता है।
जीवविपाकिनी कर्मप्रकृतियाँ ७८ प्रकार की इसलिए कर्मग्रन्थ में जीव-विपाकिनी प्रकृतियाँ ७८ कही गई हैं। उनमें से ५ ज्ञानावरण की, ९ दर्शनावरण की, २८ मोहनीय की और ५ अन्तराय कर्म की; यों ४७ घातिकर्म की प्रकृतियाँ हैं। तथा दो गोत्रकर्म की, दो वेदनीय की, एवं तीर्थंकर नामकर्म, वसत्रिक (त्रस, बादर, पर्याप्त), स्थावरत्रिक (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त), सुभग-चतुष्क (सुभग, सुस्वर, आदेय और यशःकीर्ति) दुर्भग-चतुष्क (दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति) उच्छ्वास-नामकर्म, जातित्रिक (एकेन्द्रिय आदि पांच जाति, चार गति, तथा शुभाशुभ-विहायोगति); इस प्रकार कुल ४७+३१-७८ कर्मप्रकृतियाँ जीव-विपाकिनी हैं।
भवविपाकिनी कर्मप्रकृतियाँ : स्वरूप और प्रकार नरकायु, तिथंचायु, मनुष्यायु और देवायु, ये चारों आयुकर्म की प्रकृतियाँ भवविपाकिनी हैं; क्योंकि परभव की आयु का बन्ध हो जाने पर भी जब तक जीव
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१. (क) घण-घाइ दुगोय-जिणा तासियर-तिग, सुभग-दुभग-चउ सासं।
जाइतिगं जिय-विवागा............." ॥-कर्मग्रन्थ ५, गा. २० (ख) कर्मग्रन्थ पंचम भाग, विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री), पृ. ५४, ५५
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