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विपाक पर आधारित चार कर्मप्रकृतियाँ ७५
क्षेत्रविपाकी कर्म-प्रकृतियाँ : स्वरूप और कार्य सर्वप्रथम क्षेत्रविपाकी कर्मप्रकृतियों का निरूपण करते हैं। क्षेत्र का अर्थ है-आकाश या आकाश-प्रदेश। जिन प्रकृतियों का उदय क्षेत्र में होता है, वे क्षेत्रविपाकी कहलाती हैं। यों तो सभी प्रकृतियों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा को लेकर होता है। परन्तु जहाँ जिस प्रकृति की मुख्यता होती है, वहाँ उस प्रकृति की मुख्यता से उसका नाम रखा जाता है। यहाँ क्षेत्र की मुख्यता है। कर्मग्रन्थकारों ने क्षेत्र माना है-आनुपूर्वी को। अतः आनुपूर्वी नामकर्म की नरकानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी और देवानुपूर्वी, ये चारों प्रकृतियाँ क्षेत्रविपाकी हैं। आनुपूर्वियों को क्षेत्र मानने का कारण यह है कि इनका उदय क्षेत्र में ही होता है; क्योंकि जीव जब एक शरीर को छोड़कर दूसरा (स्थूल) शरीर धारण करने के लिये परभव को गमन करता है, तब विग्रहगति के अन्तराल क्षेत्र में आनुपूर्वी को उदय (विपाक) उसे उसी तरह उत्पत्ति-स्थान के अभिमुख रखता है, जैसे-नाथ (बैल के नाक में डाला हुआ नथ) बैल को उसके गन्तव्य स्थान के अभिमुख रखता है। इसलिए आनुपूर्वी को क्षेत्र-विपाकिनी कहा गया है।
जीव-विपाकी कर्मप्रकृतियाँ : स्वरूप और कार्य .. जो कर्मप्रकृतियाँ जीव में ही साक्षात् फल दिखाती हैं; अर्थात्-जीव के ज्ञान
आदि स्वरूप का घात आदि करती हैं, वे जीव-विपाकी कर्म-प्रकृतियाँ कहलाती हैं। यद्यपि सभी कर्मप्रकृतियाँ किसी न किसी रूप से जीव में ही अपना फल देती हैं। जैसे-आयुकर्म का भवधारणरूप विपाक जीव में ही होता है, क्योंकि आयुकर्म का
.. १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५, विवेचन (मरुधरकेसलीजी), पृ. ७३ ... (ख) खित्तविवागाऽणुपुव्वीओ। -कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. १९ (ग) यद्यपि दिगम्बर और श्वेताम्बर, दोनों ही परम्परा आनुपूर्वी को क्षेत्रविपाकी
कहती हैं, किन्तु आनुपूर्वी के स्वरूप में दोनों में मतभेद हैं। श्वेताम्बर परम्परा में-एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करने के लिए जब जीव जाता है, तब आनुपूर्वी नामकर्म श्रेणी के अनुसार गति (गमन) करते हुए उस जीव को विश्रेणी में स्थित उत्पत्ति-स्थान तक ले जाता है। इस दृष्टि से आनुपूर्वी का उदय केवल वक्रगति में ही माना जाता है। यथा-'पुढवी उदओ वक्के ।'-प्रथम कर्मग्रन्थ गा. ४३। किन्तु दिगम्बर-परम्परा में आनुपूर्वी नामकर्म पहला शरीर
छोड़ने के बाद और नया शरीर धारण कने से पूर्व, अर्थात्-विग्रहगति में जीव . . का आकार पूर्व शरीर के समान बनाये रखता है। तथा उसका उदय ऋजु और
वक्र दोनों गतियों में होता है।"-पंचम कर्मग्रन्थ पादटिप्पण, पृ. ५३, ५४
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