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जैन कथा कोष २७
घर-घर में पर्यटन करते मुनि एक विशाल अट्टालिका के नीचे कुछ पलों के लिए विश्राम हेतु बैठे। उस विशाल अट्टालिका में रहने वाली गृहस्वामिनी अपने पति वियोग से व्यथित थी। मुनि को देखते ही उन पर मुग्ध हो गई । दासी द्वारा मुनिश्री को ऊपर बुलवाया और अपने प्रेम-पाश में फँसाने लगी । अपने हाव-भाव दिखाकर भ्रू-विलास के साथ बोली- ' मुनिवर ! इस सुकोमल शरीर को यों बर्बरतापूर्वक तिलतिल जलाना कहाँ की समझदारी है? यह बचकानापन सिखाने वाला कौन शिक्षा गुरु मिला? आइये, यह चरण - चेटिका आपके श्रीचरणों मे उपस्थित है। यह वैभव, यह राजसी ठाट-बाट आपके इंगित पर न्यौछावर हैं ।' मुनिश्री देखते ही रह गये ।
सच है— उद्वेलित और अन्तर्व्यथित मन तनिक-सा प्रलोभन पाकर बहुत जल्दी फिसलता है। मुनिजी गृहवासी बन गये । कंटकाकीर्ण संयम पथ से आये हुए मुनि ने इस रूपसी की शीतल छाया में सुख की साँस ली ।
उधर अरणिक की माता 'भद्रा' साध्वी ने जब अरणिक मुनि को नहीं देखा तब पागल-सी बनी ‘अरणिक-अरणिक' की पुकार करती हुई तीन दिनों तक गली-गली में फिरती रही। तीसरे दिन क्रन्दन करती हुई जब उस महल के नीचे से जाने लगी, जिस महल में अरणिक था, उसने माता का क्रन्दन सुनकर बाहर झाँका। अपनी माँ की यह अवस्था देखकर सहसा नीचे उतर आया और माँ के पैरों में गिरकर बोला- 'माँ, धैर्य धरो, अरणिक यह रहा । '
अरणिक को देखकर माँ का मानस- पंकज खिलना ही था। माँ के शिक्षासूत्रों से अरणिक पुनः प्रबुद्ध हुआ । उस ऐयाशी से उदासी आ गई । पुनः संयम ले लिया। मन में आया मेरी यह सुकुमारता ही मेरी साधना में बाधक बनी है। अतः अच्छा होगा इस सुकुमारता को ही छोडूं । यही सोचकर चिलचिलाती धूप में अपने आपको आतापना में झोंक दिया। यों कुछ समय तक आतप और तप से अपनी आत्म-शक्ति को प्रदीप्त करके कर्ममल का समूल नाश किया। अन्ततः केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में जा विराजे ।
जन्म स्थान माता
२३. अरनाथ भगवान
सारिणी
गजपुर देवी
दीक्षा- तिथि केवलज्ञान
-आवश्यक कथा
मगसिर सुदी ११ कार्तिक सुदी १२