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जैन कथा कोष १२५ श्रीकृष्ण ने उसे पहचान लिया। अपने बन्धु के हत्यारे को चाण्डालों को सौंपकर उसकी दुर्दशा करवा अपने क्रोध को शान्त किया।
अब तो सबके सामने इसके पापों का भंडाफोड़ हो चुका था। जिसने भी सुना, वह उसकी काली करतूतों की भर्त्सना किये बिना नहीं रह सका। सभी के मुँह पर एक ही चर्चा थी-धन्य है उस क्षमामूर्ति गजसुकुमार को, जिसका जीवन-वृत्त युग-युग तक संसार को क्षमा का आलोक प्रदान करता रहेगा।
-अन्तकृद्दशा ८ -त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व ८
७०. गर्दभाली मुनि 'गर्दभाली' मुनि एक महान् समर्थ आचार्य थे। एक बार वे पांचाल देश के 'कांपिलपुर' नगर के 'केशर' नाम के उद्यान में ध्यानस्थ खड़े थे। इतने में 'संयती' राजा वहाँ शिकार करने आया। मुनि झाड़ी की ओट में खड़े थे। दूर से राजा ने एक हरिण पर बाण छोड़ा। बाण ने हरिण को बींध डाला । तड़पता हुआ हरिण ध्यानस्थ 'गर्दभाली' की गोद में आ गिरा।
संयती राजा ने जब हरिण को मुनि की गोद में छटपटाता देखा, तब राजा यह सोचकर भयभीत हो उठा—हो न हो यह हरिण इन महामुनि का है। मैंने अनर्थ कर डाला। मुनिवर के हरिण को मार डाला। अवश्य मुनिवर मुझ पर कुपित होंगे और मुझे शाप देकर भस्म कर देंगे। इस प्रकार भय से काँपता हुआ संयती राजा मुनि के पैरों में आ गिरा। अपने अपराध की क्षमायाचना करता हुआ बोला-"मैंने अनजान में आपके इस हरिण का वध कर दिया, आप मुझे क्षमा कर दें। संत लोग सहज क्षमाशील होते हैं।"
यों पुनः-पुनः वन्दना करता हुआ, क्षमा माँगता हुआ संयती राजा मुनि के प्रति भक्ति दिखाने लगा।
मुनि ने ध्यान समाप्त किया। घबराते हुए राजा को आश्वस्त करते हुए बोले—'राजन् ! घबराओ मत ! मैं तुम्हें अभय देता हूँ और मैं चाहूँगा तुम भी इन मूक निरीह पशुओं को अभय दो। सभी प्राणी सुख चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता। जैसे तुम्हें अपने प्राण प्रिय हैं, वैसे ही सभी को अपने प्राण प्रिय हैं। तनिक से जिह्वा के स्वाद के लिए यों पशुओं का हत्यारा बन जाना कहाँ तक समुचित है?