________________
जैन कथा कोष १८६
1
एक दिन उसने अपने साथियों सहित एक बड़ा नगर लूटा। साथियों ने खूब धन बटोरा और अनेक प्राण लूटे । 'दृढ़प्रहारी' एक ब्राह्मण के घर ठहरा हुआ था। ब्राह्मण के यहाँ उस दिन खीर का भोजन था । बच्चे खाने को आतुर हो रहे थे। ‘दृढ़प्रहारी' भी वहाँ भोजन के लिए आमन्त्रित था, इसलिए तपाक से खीर के बर्तन के पास जा बैठा । ब्राह्मणी को इसका यों बैठना अखरा । उसने डाँटते हुए कहा—इतनी तो तेरे में समझ होनी चाहिए कि तेरे छू जाने के बाद यह बर्तन हमारे क्या काम आयेगा ? इसलिए थोड़ी दूर बैठ । मैं तुझे भोजन अवश्य करा दूँगी ।
इतना सुनते ही दृढ़प्रहारी का क्रोध भड़क उठा। आव देखा न ताव, तलवार का प्रहार करके ब्राह्मणी के दो टुकड़े कर दिए। बच्चों और ब्राह्मणी की चिल्लाहट सुनकर पास में बैठा ब्राह्मण जो स्नान कर रहा था, सहायता के लिए दौड़ा। दृढ़प्रहारी ने उसके भी दो टुकड़े कर दिए। ब्राह्मण ज्यों ही गिरा, पास में खड़ी गाय ने अपने स्वामी की यों नृशंस हत्या देखी तो वह भी उधर दौड़ी। उसने भी उससे प्रतिशोध लेना चाहा । दृढ़प्रहारी तलवार चलाने में अभ्यस्त तो था ही, गाय पर तलवार का वार किया और उसके भी दो टुकड़े कर दिए। गाय गर्भवती थी । तड़फड़ाता वह गर्भ भी बाहर निकल आया ।
एक ओर ब्राह्मण-ब्राह्मणी के शव के दो-दो टुकड़े पड़े हैं और दूसरी तरफ गाय तथा उसका अकाल-जात बच्चा पड़ा है। उन सबको घूर घूरकर देख रहा है नर - पिशाच दृढप्रहारी !
दृढ़प्रहारी ने पता नहीं कितनी हत्याएं की होंगी। कभी भी उसका दिल नहीं पसीजा, परन्तु आज उस बछड़े की तड़फड़ाहट से उसका दिल पिघल गया, रो उठा। आँखों के सामने अँधेरा छा गया और सिर चक्कर खाने लगा ।
आखिर दिल था तो उसका भी मानव का ही । करुणा जाग उठी। आँखें नम हो गयीं। हाथ में खून सनी तलवार थी, पर मन में अनूठी उथल-पुथल थी। दिल रह-रहकर रो रहा था । मन-ही-मन वह अपने आपको धिक्कारने लगा। गाय जैसा निरीह प्राणी भी अपने स्वामी की सुरक्षा को दौड़ सकता है, उसमें भी इतना विवेक है, मैं फिर भी कम्पित न हुआ । छि:-छि: !
निर्वेद रस में डूबा साधु बनकर वन की ओर चल पड़ा। वन की ओर बढ़ते ही मन में आया, वहाँ मेरे निर्जरा का क्या प्रसंग आयेगा ? जिनका सर्वस्व