Book Title: Jain Katha Kosh
Author(s): Chatramalla Muni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh prakashan

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Page 389
________________ . .. .. .. 'मा कोष • ३७२ जैन कथा कोष एक बार चार्तुमास करने के लिए इन्होंने गुरुदेव संभूतिविजय से आज्ञा मांगते हुए अपनी इच्छा प्रकट की—गुरुदेव ! मैं कोषा वेश्या की चित्रशाला में चार्तुमास करके अपनी दृढ़ता की परीक्षा करना चाहता हूँ। विशिष्ट ज्ञानी आचार्य संभृतिविजय ने क्षण-भर के लिए उपयोग लगाया और उस कठोर साधना में उत्तीर्ण होने योग्य समझकर इन्हें अनुमति प्रदान कर दी। ___ कोशा में चित्रशाला में रहकर भी ये अडिग रहे । वहाँ के षट्रस व्यंजन और कामोद्दीपक वातावरण में भी इन्होंने सफल साधना की। कोशा ने भी इनसे प्रभावित होकर श्रावकधर्म स्वीकार कर लिया। वह श्राविका बन गई। जब चार्तुमास व्यतीत करके ये गुरुदेव के पास आये तो उन्होंने इनका स्वागत किया और इनकी साधना को 'अति दुष्कर' बताकर इनकी प्रशंसा की। द्वादशवर्षीय अकाल में जब अनेक श्रुतधर काल-कवलित हो गये तब अकेले भद्रबाहु ही श्रुतकेवली रह गये थे। वे नेपाल में महाप्राणध्यान साधना कर रहे थे। एकादश अंगों का तो यथातथ्यरूपेण संकलन हो गया; लेकिन बारहवें अंग दृष्टिवाद का संकलन न हो सका। तब संघ ने पाँच सौ साधुओं के साथ इन्हें नेपाल श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के पास भेजा। वहाँ ये उनसे दृष्टिवाद की वाचना लने लगे। .. अभी ये बारहवें अंग के १४ पूर्वो में से १० पूर्वो की ही याचना ले पाये थे कि इनकी संसारपक्षीय यक्षा आदि बहनें, जो साध्वी बन चुकी थी, इनके दर्शनों के लिए आयीं। विद्या के चमत्कार-प्रदर्शन के लिए इन्होंने सिंह का रूप बना लिया। जैसे ही भद्रबाहु स्वामी को यह बात ज्ञान हुई, उन्होंने आगे वाचना देना बन्द कर दिया। काफी अनुनय-विनय के बाद उन्होंने शेष ४ पूर्वो की शाब्दिक वाचना दी। इस प्रकार आचार्य स्थूलभद्र ग्यारह अंग और १० पूर्वो के पाठी हुए। शेष चार पूर्वो का. इन्हें शाब्दिक ज्ञान था। इनका जन्म वीर नि. सं. ११६ में हुआ। ३० वर्ष तक इन्होंने गृहस्थ-जीवन व्यतीत करके वि. नि. सं. १४६ में दीक्षा ली। २४ वर्ष तक साधु पर्याय में रहकर वि. नि. सं. १७० में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। ४५ वर्ष तक आचार्य पद को सुशोभित करके वि. नि. सं. २१५ में स्वर्गस्थ हुए। -परिशिष्ट पर्व, सर्ग ८-६

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