Book Title: Jain Katha Kosh
Author(s): Chatramalla Muni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh prakashan

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Page 410
________________ जैन कथा कोष ३६३ ३. प्रवचन की भक्ति। ४. गुरु की भक्ति । ५. स्थविर की भक्ति। ६. बहुश्रुत (ज्ञानी) की भक्ति । ७. तपस्वी की भक्ति। ८. ज्ञान में निरंतर उपयोग रखना। ६. सम्यक्त्य की निर्दोष आराधना करना। १०. उत्कट संयम भावना। ११. गुणवानों का विनय करना। -- १२. विधिपूर्वक षडावश्यक करना। १३. शील एवं व्रतों का निर्दोष पालन। १४. उत्कट वैराग्य भावना। १५. तप व त्याग की उत्कृष्टता । १६. चतुर्विध संघ को समाधि उत्पन्न करना। १७. अपूर्व ज्ञान का आभास । १८. वीतराग-वचनों पर दृढ़ श्रद्धा। १६. सुपात्र-दान। २०. जिन प्रवचन की प्रभावना। -ज्ञातासूत्र ८ तीर्थकरों का काल और बारह चक्रवर्ती 1. भरत चक्रवर्ती प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव के समय में। 2. सगर चक्रवर्ती द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ के समय में 3. मघवा पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ और सोलहवें तीर्थकर शान्तिनाथ के अन्तरकाल में । 4. सनत्कुमार पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ और सोलहवें तीर्थकर शान्तिनाथ के अन्तराल काल में 5. शान्तिनाथ स्वयं सोलहवें तीर्थकर 6. कुंथुनाथ स्वयं सत्रहवें तीर्थकर 7. अरनाथ स्वयं अठारहवें तीर्थकर

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