Book Title: Jain Katha Kosh
Author(s): Chatramalla Muni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh prakashan

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Page 407
________________ ३६० जैन कथा कोष २३. किन्तु समस्त श्रोता अपनी-अपनी भाषा में समझते हैं । २४. भगवान् के सान्निध्य में जन्मजात वैरी अपना वैर भूल जाते हैं । २५. विरोधी भी नम्र हो जाते हैं । २६. प्रतिवादी निरुत्तर हो जाते हैं। २७-२८. भगवान् के आस-पास पच्चीस योजन के परिमण्डल में ईति तथा मारी आदि नहीं होती । २६-३३. जहाँ-जहाँ भगवान् विहार करते हैं वहाँ-वहाँ स्वचक्र, परचक्र, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, रोग आदि के उपद्रव नहीं होते । ३४. भगवान् के चरण-स्पर्श से उस क्षेत्र के पूर्वोत्पन्न सारे उपद्रव शान्त हो जाते हैं। | - समवायांग सूत्र, ३४ आठ कर्म १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. मोहनीय, ४. अन्तराय. (ये चार घाति कर्म हैं ।) ५. वेदनीय, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. आयुष्य । बारह गुण केवलज्ञान प्राप्त होने पर अरिहंतों में ये बारह गुण प्रकट होते हैं— 7. दिव्यध्वनि 8. चामर 9. स्फटिक सिंहासन 10. तीन छत्र 11. आकाश में देव दुन्दुभि 12. भामण्डल 1. अनन्तज्ञान 2. अनन्तदर्शन 3. अनन्तचारित्र (सुख) 4. अनन्तबल 5. अशोक वृक्ष 6. देवकृत पुष्पवृष्टि इनमें प्रथम चार आत्मशक्ति के रूप में प्रकट होते हैं और पाँच से बारह तक भक्तिवश देवताओं द्वारा किये जाते हैं। प्रथम चार को 'अनन्त चतुष्टय' तथा शेष आठ को 'अष्ट महाप्रतिहार्य' भी कहते हैं ।

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