Book Title: Jain Katha Kosh
Author(s): Chatramalla Muni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh prakashan

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Page 398
________________ जैन कथा कोष परिशिष्ट : १ बीस विहरमान तीर्थंकर ३८१ (जैन सूत्रों के अनुसार मध्यलोक काफी बड़ा है। इसमें असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं, जो एक-दूसरे को चूड़ी के समान घेरे हुए हैं। इसके केन्द्र में जम्बूद्वीप है और सबसे अन्तिम समुद्र स्वयंभूरमण है। इनमें जम्बूद्वीप थाली के आकार का है और शेष सभी द्वीप- समुद्र चूड़ी के आकार के हैं । द्वीप- समुद्र सब एक-दूसरे से दुगुने आकार वाले हैं और सबके केन्द्र में स्थित जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तार वाला है । वर्तमान जाना हुआ सम्पूर्ण विश्व तो जम्बूद्वीप के एक भाग भरतक्षेत्र का भी एक भाग मात्र है, जिसे जैनशास्त्रों में आर्यखण्ड कहा गया है। इन असंख्यात द्वीप - समुद्रों में से मनुष्यों का निवास केवल ढाई द्वीपों में ही है । ये ढाई द्वीप हैं— जम्बूद्वीप, धातकीखण्डद्वीप और अर्द्धपुष्करद्वीप । इन्हीं ढाई द्वीपों में तीर्थकर उत्पन्न होते हैं और विचरण करते हैं । जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र के मध्य भाग में मेरु पर्वत है । पर्वत के पूर्व में सीता और पश्चिम में सीतोदा महानदी है। दोनों नदियों के उत्तर और दक्षिण में आठ-आठ विजय हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में आठ-आठ की पंक्ति में बत्तीस विजय हैं। इन दोनों विजयों में जघन्य ( कम-से-कम ) ४ तीर्थंकर सदा रहते हैं अर्थात् प्रत्येक आठ विजयों की पंक्ति में कम-से-कम एक तीर्थंकर सदा रहते हैं । प्रत्येक विजय में एक तीर्थकर के हिसाब से उत्कृष्ट (अधिक-से-अधिक ) बत्तीस तीर्थंकर रहते हैं । धातकीखण्ड और पुष्करार्द्ध द्वीप के चारों विदेहक्षेत्रों में भी ऊपर लिखे अनुसार ही बत्तीस-बत्तीस विजय हैं। प्रत्येक विदेहक्षेत्र में ऊपर लिखे अनुसार जघन्य चार और उत्कृष्ट बत्तीस सदा रहते हैं। कुल विदेहक्षेत्र पाँच हैं और उनमें १६० विजय हैं। इस प्रकार सभी विजयों में जघन्य २० और उत्कृष्ट १६० तीर्थंकर रहते हैं। इन विदेहक्षेत्रों के अतिरिकत ढाई द्वीपों में पाँच भरतक्षेत्र और पाँच ऐरावतक्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों में उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी रूप कालचक्र है। प्रत्येक उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी में छह-छह आरे (काले विभाग) होते हैं। जब इन क्षेत्रों में अवसर्पिणी काल का चौथा आरा और उत्सर्पिणी काल का तीसरा आरा होता

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