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३८२ जैन कथा कोष
है, तब यहाँ भी प्रत्येक भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में एक- एक तीर्थंकर होते हैं। इन दोनों क्षेत्रों में १० तीर्थकर होते हैं । अतः पाँचों विदेहक्षेत्र के १६० और पाँच-पाँच भरत-ऐरावत क्षेत्रों के १० कुल उत्कृष्ट १७० तीर्थंकर होते हैं लेकिन काल - परिणमन चक्र के कारण ऐसा नियम नहीं कि इन भरत और ऐरावत क्षेत्रों में तीर्थंकर सदा रहें ही । इसलिए जब तीर्थकरों की जघन्य संख्या होती हैं तो भरत और ऐरावत क्षेत्रों में कोई तीर्थंकर नहीं रहते। सिर्फ विदेहक्षेत्रों में ही तीर्थंकर रहते हैं, अतः उनकी संख्या बीस ही रह जाती है ।
वर्तमान काल में पाँचों विदेहक्षेत्र में बीस तीर्थंकर विद्यमान हैं। उन्हें विहरमान कहते हैं। उन सबकी आयु चौरासी लाख पूर्व की होती है। उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है।
१. श्री सीमन्धर स्वामी
'सीमन्धर' प्रभु पहले विहरमान तीर्थंकर हैं। इनका जन्म 'जम्बूद्वीप' के पूर्व महाविदेहक्षेत्र में पुष्पकलावती विजय की पुण्डरीकिणी नगरी में हुआ । इनके पिता का नाम महाराज 'श्रेयांस' और माता का नाम 'सत्यकी' है। चौदह स्वप्नों से सूचित उस पुत्ररत्न के ऋषभ का लांछन देखकर सबने उन्हें महापुरुष माना और उनका नाम दिया 'सीमन्धर' अर्थात् संयम की सीमा को धरने वाले ।
युवावस्था में आपका देहमान पाँच सौ धनुष हो गया । रुक्मिणी नाम की एक सुन्दर राजकन्या से आपका विवाह हुआ ।
तिरासी लाख पूर्व तक संसार में रहकर दीक्षित बने, केवलज्ञान प्राप्त किया ।
आपकी सर्वायु चौरासी लाख पूर्व की है। जब भरतक्षेत्र में उत्सर्पिणी काल के तीसरे आरे में पन्द्रहवें तीर्थंकर विचर रहे होंगे, उस समय आपका निर्वाण होगा ।
२. श्री युगमन्धर स्वामी
ये दूसरे विहरमान तीर्थंकर हैं। इनका जन्म जम्बूद्वीप की पश्चिम महाविदेह की 'वपु विजय' में 'विजया' नाम की नगरी में हुआ । इनके पिता का नाम सुदृढ़ तथा माता का नाम सुतारा है। गज लांछन वाले युगमन्धर प्रभु का प्रियंगला नाम की राजकन्या से विवाह हुआ ।