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जैन कथा कोष ३७३ २१६. स्वयंभू वासुदेव दर्शनीय नगर 'द्वारिका' में महाराज 'रुद्र' का शासन था। उनके 'सुप्रभा' और 'पृथिवी' नाम की दो रानियाँ थीं। महारानी 'सुप्रभा' के चार स्वप्नों से सूचित एक पुत्र हुआ जिसका नाम 'भद्र' रखा गया। यह तीसरा बलभद्र कहलाया। दूसरी महारानी 'पृथिवी' के भी सात स्वप्नों से सूचित एक पुत्र हुआ, जिसका नाम 'स्वयंभू' रखा गया। यह तीसरा वासुदेव था।
_ 'स्वयंभू' का जीव बारहवें स्वर्ग से च्यवन करके आया था। यह देव अपने पूर्वभव में धनमित्र के नाम से 'श्रावस्ती' नगरी का स्वामी था। महाराज 'धनमित्र' की अपने 'समानधर्मा' महाराज 'बलि' के साथ घनिष्ठ मित्रता थी। महाराज 'बलि' अपने प्रिय मित्र 'धनमित्र' के यहाँ आया हुआ था। बात ही बात में दोनों जुए के खेल में लग गये। प्रत्येक बुराई का प्रारंभ लघु रूप में ही हुआ करता है और बाद में वह सुरसा जैसा विराट रूप बना लिया करती है। 'धनमित्र' के साथ भी यही हुआ। सचिवों, महारानियों के बहुत समझाने पर भी वह अपनी आदत से बाज नही आया। फलत: बलि का 'श्रावस्ती' पर अधिकार हो गया। राजा 'धनमित्र' युधिष्ठिर की भांति भिखारी बनकर वन में चला गया। शुभ संयोग से वहाँ 'धनमित्र' को 'सुदर्शन' मुनि के दर्शन हो गये। वह साधु बनकर साधना में लग गया। __व्यक्ति सब कुछ भूल सकता है, पर अपना पराभव भूलना उसके वश की बात नहीं हुआ करती। पराभव का ज्वालामुखी 'धनमित्र' के मन में भी सुलगता रहा। कषाय के तीव्र आवेग में आकर 'बलि' से बदला लेने का संकल्प कर ही लिया। निदान का प्रायश्चित किये बिना ही मृत्यु को प्राप्त होकर बारहवें स्वर्ग में गया। वहाँ से च्यवकर 'स्वयंभू' वासुदेव के रूप में पैदा हुआ।
उधर राजा बलि भी श्रमणधर्म स्वीकार कर देव बना। वहाँ वह नंदनपुर नगर के महाराज समरकेशरी की पटरानी सुन्दरी का पुत्र हुआ। वह प्रतिवासुदेव 'मेरक' कहलाया। ___'मेरक' के अधीन ही 'स्वयंभू' के पिता रुद्र थे। यथासमय 'मेरक' और 'स्वयंभू' में युद्ध छिड़ा। जर (धन), जोरू (स्त्री) और जमीन ही प्रमुख रूप से युद्ध के निमित्त बना करते हैं, पर उपादान कारण तो प्रमुख रूप से अपने . पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों का संचित वैर-विरोध ही होता है। प्रतिवासुदेव 'मेरक' को मारकर 'स्वयंभू' तीसरा वासुदेव बना। वह तीन खण्ड का