Book Title: Jain Katha Kosh
Author(s): Chatramalla Muni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 386
________________ जैन कथा कोष ३६६ इन्द्र महाराज असमंज में पड़ गये। यदि स्वीकृति देते हैं तो प्रभु को पीड़ित होना पड़ता है, अस्वीकार करते हैं तो अपनी कही हुई बात असत्य सिद्ध होती है तथा प्रभु की कष्ट-सहिष्णुता के प्रति भी सभी को सन्देह होता है, अत: इन्द्र को स्वीकृति देनी ही पड़ी। ___संगम ने स्वर्ग से चलकर 'पेढाल' ग्राम में भगवान् महावीर के पास आकर उनको अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसर्ग देने प्रारम्भ किये। वह अपने आपको भगवान् का शिष्य बताता और ग्रामवासियों को कहता—'मेरे गुरु चोर हैं, चोरी करने रात को आयेंगे, अतः मैं सेंध का मौका देख रहा हूँ।' लोग क्रोधित हो भगवान् को पीटने वहाँ आते । कभी वह गाँव से कोई वस्तु चुराकर भगवान् के पास रख देता तथा ग्रामवासियों को कहता—'मैंने भगवान् महावीर के कहने पर वस्तु चुरायी है।' अनजान ग्रामीण भगवान् महावीर पर बरस पड़ते। भगवान् अपने पूर्वकर्मों का उदय सोचकर समभाव रखते और मार से विचलित न होते। एक रात में तो 'संगम' ने नृशंसता की पराकाष्ठा ही कर दी और बीस मरणान्तक कष्ट दिये उसने १. धूल की वर्षा की। २. वज्रमुखी चीटियाँ बनकर प्रभु के शरीर को काटा। ३. वज्रमुखी डांस बनकर काटा। ४. घीमेल (दीमक) बनकर काटा। ५. बिच्छू बनकर डंक मारे। ६. सर्प बनकर अनेक बार डसा । ७. नेवला बनकर नाखून और मुंह से उनके शरीर को विदीर्ण किया। ८. चूहा बनकर काटा। ६. हाथी और हथिनी बनकर भगवान् को सूंड से पकड़कर आकाश में उछाला। १०. नीचे गिरने पर पैरों और दांतों से रौंदा। ११. पिशाच का रूप बनाकर डराया। १२. व्याघ्र बनकर छलांग भरते हुए डराया। ... १३. माता बनकर कहा-पुत्र-! तू किसलिए दु:खी हो रहा है। चल, मैं तुझे सुखी करूंगी।

Loading...

Page Navigation
1 ... 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414