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३६८ जैन कथा कोष धर्म का स्वरूप जानने लगे और उनकी पूजा करने लगे। इस प्रकार असंयती पूजा शुरू हुई। इसी काल में भूमिदान, लोहदान, तिलदान, स्वर्णदान, गोदान, कन्यादान आदि अनेक प्रकार के दानों का प्रचलन हुआ।
धर्म-परिवार गणधर ८८ वादलब्धिधारी
६००० केवली साधु ७५०० वैक्रियलब्धिधारी
१३,००० केवली साध्वी १५,000 साधु
२,००,००० मन:पर्यवज्ञानी ७५०० साध्वी
३,००,००० अवधिज्ञानी
८४०० श्रावक
२,२६,००० पूर्वधर १५०० श्राविका
४,७१,००० -त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र
२१३. संगमदेव श्रमण भगवान् महावीर तब छद्मस्थ अवस्था में थे। वे 'पेढाल' ग्राम के 'पोलास' नामक देवालय में ध्यानस्थ थे। एक रात्रि प्रतिज्ञा ग्रहण करके कायोत्सर्ग कर रहे थे। उसी समय सौधर्मेन्द्र ने अपनी देवसभा में प्रभु की कष्टसहिष्णुता की प्रशंसा करते हुए यहाँ तक कह दिया—'आज संसार में कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो उन्हें कायोत्सर्ग से विचलित कर दे।' . सभी पार्षद देवों को यह सुनकर हर्ष हुआ। पर सभी समानधर्मी नहीं होते। वहीं बैठा 'संगम' नाम का देव जो इन्द्र का सामानिक देव था, उसको इन्द्र का यह कथन अच्छा नहीं लगा। वह अपनी असहमति मन में समेटे नहीं रख सका
और बोला—'ऐसा कोई भी देहधारी नहीं हो सकता जो देव-शक्ति के सामने नतमस्तक न हो जाए।' इतना ही नहीं, उसने इन्द्र की बात को चुनौती देते हुए कहा—'मैं अभी उन्हें विचलित कर सकता हूँ। मेरी शक्ति के सामने वे किसी भी दशा में नहीं टिक सकते।'
इन्द्र ने कहा—'ऐसा हो ही नहीं सकता कि वे किसी भी ताड़ना या तर्जना से विचलित हो जायें।'
संगम—'यदि मेरे पर किसी भी प्रकार की प्रतिकारात्मक कार्यवाही न करें तो मैं अभी उनकी परीक्षा लेकर बता दूँ।'