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३६६ जैन कथा कोष यथासमय सभी पुत्रों का सकुशल प्रसव देव ने करा दिया। यह अवश्य कहा'ये सभी पुत्र एक साथ ही मृत्यु को प्राप्त होंगे।'
बड़े होने पर इन सब का विवाह कर दिया। चेलना के हरण के समय सुरंग में इन सभी पुत्रों का एक साथ ही अवसान हो गया। पुत्रों की मृत्यु से सुलसा को शोक तो हुआ, पर वह समताशील थी। उसने पुत्रों की मृत्यु को भाग्य की लीला माना तथा उनकी मृत्यु के बाद अपनी धर्मश्रद्धा में और अधिक दृढ़ हो गयी।
एकदा 'चम्पानगरी' में भगवान् महावीर का उपदेश सुनने 'अबंड' संन्यासी गया। उपदेश सुनकर जाने लगा तब बोला—'मैं 'राजगृह' जा रहा हूँ। कभी मौका हो तो आप भी राजगृह पधारने की कृपा करना।' __ भगवान् ने प्रसंगवश कहा—'वहाँ 'सुलसा' श्राविका है, वह श्रद्धा में बहुत
'अबंड' वैक्रियलब्धिसम्पन्न संन्यासी था। मन में आया, भगवान् ने जिसकी सराहना की है, उसकी परीक्षा तो कर ही लेनी चाहिए। 'राजगह' आकर अपने लब्धि के योग से लोगों को प्रभावित करने के लिए पूर्व दिशा के द्वार पर ब्रह्मा का रूप बनाकर उपस्थित हो गया। हजारों-हजारों व्यक्ति गये परन्तु 'सुलसा' को क्या जाना था? यों क्रमश: दक्षिण, पश्चिम, उत्तर के दरवाजे पर भी 'विष्णु', 'शंकर' तथा अन्तिम दिन भगवान् महावीर का रूप बनाकर भी समवसरण की रचना की। 'सुलसा' तो फिर भी नहीं गई। जब महावीर बने 'अंबड' ने स्वयं 'सुलसा' के घर जाकर पूछा—'सुलसा ! तू मेरे दर्शनार्थ क्यों नहीं आयी? क्या मैं 'महावीर' नहीं हैं?'
सुलसा ने कहा—'हाँ ! आप भगवान् महावीर नहीं हैं। इसलिए मैं नहीं आयी और न ही आऊँगी।'
'अबंड'-'क्यों, मैं भगवान् महावीर क्यों नहीं हूँ?'
'सुलसा'-'भगवान् महावीर की आँखें क्रोध से कभी लाल नहीं होती हैं। आपकी आँखें लाल हो रही हैं।'
'अबंड' मन-ही-मन झेंपा। अपना मूल रूप प्रकट कर उसने भगवान् की कही हुई सारी बात कही तथा कहा—'तू कसौटी पर खरी उतरी। इसकी मुझे परम प्रसन्नता है।' 'सुलसा' ने भी साधर्मिक भाई को अपने घर आये देखकर प्रसन्नता व्यक्त की। भगवान् का सुख-संवाद पूछा।