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जैन कथा कोष ३४६
सुदर्शन बन गये । विहार करते-करते पाटलिपुत्र नगर में पहुँचे। वहाँ उस पंडिता ने पूर्व की घटना को याद करके शत्रुता मानते हुए मुनि को घोर उपसर्ग दिये । उधर उस व्यन्तरी ने भी मुनि को कष्ट दिये । परन्तु सुदर्शन मुनि ने सभी कष्टों को समता से सहते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया और मोक्ष में विराजमान हुए।
- आवश्यक कथा
२०३. सुधर्मा स्वामी ( गणधर )
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'सुधर्मा' स्वामी 'भगवान् महावीर' के पाँचवें गणधर थे। इनका जन्म 'कोल्लाक' सन्निवेश में ' वेश्यायन' गोत्र में हुआ था । इनके पिता का नाम 'धनमित्र' और माता का नाम ' भद्दिला' था । इनका जन्म उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुआ था । ये प्रतिभासम्पन्न, व्युत्पन्नमति तथा अनेक शास्त्रों में पारंगत और अनेक विद्याओं के अधिकारी विद्वान थे। फिर भी मन में सन्देह था - ' -' प्राणी जैसा इस भव में होता है, वैसा ही परभव में होता है या उसका स्वरूप भिन्न होता है?' इनका यह संशय भगवान् महावीर ने मिटाया । संशय मिटने के बाद इन्होंने अपनी इक्यावन वर्ष की आयु में भगवान् महावीर के पास संयम लिया । बयालीस वर्ष छद्मस्थ रहे । तीस वर्ष तक भगवान् महावीर की सेवा में रहे और भगवान् के निर्वाण के बाद बारह वर्ष तक उनके पटधर के रूप में छद्मस्थ रहे या यों कहा जा सकता है कि गौतम स्वामी की सेवा में रहे । बानबे वर्ष की आयु में सुधर्मा स्वामी को केवलज्ञान हुआ । आठ वर्ष केवली पद पर रहकर एक सौ वर्ष की आयु में वैभारगिरि पर एक मास का अनशन करके निर्वाण प्राप्त किया । भगवान् महावीर के निर्वाण से बीस वर्ष बाद ये मुक्त हुए ।
वैसे भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों में गौतम और सुधर्मा के अतिरिक्त शेष सभी गणधरों ने भगवान् की विद्यमानता में ही निर्वाण प्राप्त कर लिया । गौतम स्वामी को भगवान् महावीर की निर्वाण - रात्रि में केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी, अतः भगवान् की पट्ट परम्परा सुधर्मा स्वामी को प्राप्त हुई । संघ परम्परा सुधर्मा गच्छ कहलाई । जैसे गौतम स्वामी ने प्रभु से अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए अनेक प्रश्न करके भगवान् का ज्ञान सुरक्षित रखा, वैसे ही सुधर्मा स्वामी से जम्बूस्वामी ने प्रश्न पूछकर ज्ञान- परम्परा को अविच्छिन्न
रखा ।