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जैन कथा कोष ३५६
विद्याधर ‘मेघनाद' ने अपनी पुत्री 'पद्मश्री' का विवाह 'सुभूम' के साथ कर दिया। मां के मुँह से पिता की मृत्यु का संकेत पाकर 'सुभूम' क्रुद्ध हुआ । 'परशुराम' से बदला लेना चाहा और उसी दानशाला में पहुंचा। उसके देखते ही वह थाल खीर से भर गया । उसने वह सारी खीर वहीं पड़े सिंहासन पर बैठकर खा ली। रक्षकगण बड़बड़ाने लगे, तब 'मेघनाद' जो साथ ही था, गुस्से में आ गया। उसने ब्राह्मणों का सफाया करना शुरू कर दिया। पता लगते ही 'परशुराम' क्रोध में तमतमाता हुआ आया । उसने अपना 'परशु' 'सुभूम' पर फेंका, परन्तु हुआ कुछ भी नहीं । 'परशुराम' के जीवन का यह पहला प्रसंग था, जब उसके द्वारा किया गया वार ऐसे खाली चला गया । 'सुभूम' के पास और तो कुछ था नहीं । उसने उसी थाल को 'परशुराम' पर फेंका। थाल ने चक्र का काम किया । 'परशुराम' धराशायी हो गया । अपने ही थाल से इस प्रकार 'परशुराम' का अन्त हो गया ।
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केवल 'परशुराम' को मारकर ही 'सुभूम' सन्तुष्ट नहीं हुआ। 'परशुराम' पृथ्वी को सात बार क्षत्रियविहीन बनाया था । 'सुभूम' ने वही प्रतिशोध करने के लिए इक्कीस बार पृथ्वी को ब्राह्मणविहीन किया । फिर भी किसी जाति सर्वथा विलोप कब संभव हो सकता है? परन्तु अहं की अकड़न व्यक्ति से विफल चेष्टा तो करवा ही लेती है।
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इसके बाद राज्यविस्तार की लालसा जगी। छह खण्डों पर आधिपत्य स्थापित किया। पूर्ण चक्रवर्ती हो जाने पर 'सुभूम' की लालसा और भी अधिक भभकी । धातकीखण्ड के छह खण्डों पर विजय पाने निकला । मंत्रियों I ने बहुत समझाया पर वह मानने वाला कहाँ था ! चर्मरत्न पर बैठकर लवण समुद्र को पार कर रहा था । चर्मरत्न के हजार अधिष्ठायक देव उसके अधीन थे। ज्यों ही लवण समुद्र के मध्य में पहुंचे, एक देव के मन में विश्राम करने की आयी। सोचा, मैं एक विश्राम कर लेता हूं, शेष ६६६ तो है हीं । संयोग की बात, सभी की भावना एक साथ ही बदल गई। सेना सहित 'सुभूम' लवण समुद्र में डूबने लगा, परन्तु फिर भी चर्मरत्न का वह यान कुछ-कुछ तैर रहा था। अहं की अकड़ में चक्रवर्ती ने देवों से कहा – तुम सबने छोड़ दिया, फिर भी क्या हुआ ? मेरे भाग्य से यह तो तैर रहा है।
देवों ने यह उस रत्न पर लिखे हुए नवकार मंत्र का प्रभाव बताया । सुभूम ने कहा- इसमें क्या धरा है? तलवार से मंत्र को मिटा दिया। फिर