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जैन कथा कोष ३६१
उसे ही यह बालक दे दिया जाये ।' बात साफ करते हुए रानी ने कहा' -' इसकी असली माँ यही है। इसी के दर्द हुआ है। दूसरी ने तो यह मानकर खुशी मनाई, कि चलो, मेरे पास तो वैसे भी नहीं रहेगा । वह तो ऐसे ही मारा जायेगा तथा इस दुनिया से ही जायेगा ।' बड़ी को कुछ ताड़ना दी गई। उसने सारी बात सचसच कह दी । सच्चाई सबके सामने आ गई।
सुनने वालों ने महारानी की इस सुमति की सराहना की। महाराज ने सारा गर्भ का प्रभाव माना। इसलिए पुत्र का नाम 'सुमतिनाथ' रखा |
युवावस्था में अनेक राजकन्याओं के साथ उसका विवाह किया गया । महाराज 'मेघ' अपना राज्य उन्हें सौंपकर स्वयं संयमी बने । बहुत लम्बे समय तक उन्होंने राज्य भोगकर वर्षीदान दिया । एक हजार राजाओं के साथ प्रभु ने वैशाख सुदी ६ को दीक्षा ली। बीस वर्ष छद्मस्थ रहे। बाद में केवलज्ञान प्राप्त किया और तीर्थ की स्थापना की । प्रभु के 'चमर' आदि एक सौ गणधर थे अन्त में एक हजार साधुओं के साथ भगवान ने एक मास का अनशन सम्मेदशिखर पर्वत पर किया । चैत्र सुदी ६ को आपका निर्वाण हुआ। ये I वर्तमान चौबीसी के पाँचवें तीर्थंकर हैं।
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धर्म-परिवार
गणधर
केवली साधु केवल साध्वी
मनः पर्यवज्ञानी
साधु
साध्वी
१००
१३,०००
२६,०००
१०,४५०
३,२०,०००
५,३०,०००
अवधिज्ञानी
पूर्वधर
वादलब्धिधारी
११,०००
२४००
१०,६५०
वैक्रिय ब्धधारी
१८,४००
श्रावक
२,८१,०००
श्राविका
५,१६,०००
— त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, ३/३
२०६. सुरादेव
'वाराणसी' नगरी में रहने वाला गाथापति 'सुरादेव' अच्छी प्रतिष्ठा वाला, बुद्धिमान और सुखी जीवन जीने वाला था । वह अठारह कोटि धन का मालिक था। दस-दस हजार गायों के छः गोकुलों का स्वामी था । उसकी धर्मपत्नी का नाम था 'धन्या'। वैसे थी भी वह धन्या । सेठ के तीन पुत्र थे ।