Book Title: Jain Katha Kosh
Author(s): Chatramalla Muni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh prakashan

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Page 369
________________ ३५२ जैन कथा कोष और तप की आराधना करके वह प्रथम स्वर्ग में गया । वहाँ से देव और मनुष्य के कुछ भव करके 'महाविदेह' में उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त करेगा । —सुखविपाक सूत्र, १ _२०६. सुभद्रा 'वसन्तपुर' नगर के महाराज 'जितशत्रु' के मन्त्री का नाम 'जिनदास' था । 'जिनदास' की पत्नी का नाम था 'तत्त्वमालिनी' । 'जिनदास' पक्का जिन दास था तो 'तत्त्वमालिनी' सही अर्थ में तत्त्व - मालिनी ही थी । उनके एक पुत्री हुई जिसका नाम 'सुभद्रा' रखा गया । 'सुभद्रा' में बचपन से ही अच्छे धार्मिक संस्कार विकसित हुए। उसका व्यवहार जहाँ मधुर और जीवन सीधा-सादा था, वहाँ आचार और विचार में भी पूर्ण पापभीरुता झलका करती थी । युवती होने पर 'सुभद्रा' के लिए योग्य वर की खोज होने लगी । अन्यान्य योग्यताओं के साथ पति का जैनधर्मी होना अत्यावश्यक था । विधर्मी को अपनी पुत्री देने के लिए 'जिनदास' किसी भी मूल्य पर तैयार नहीं था । उसकी मान्यता थी कि उस सोने की चमक-दमक में क्या धरा है, जिससे कान टूटता हो । 'चम्पानगर' में रहने वाले 'बुद्धदास' नाम के एक व्यक्ति ने 'सुभद्रा' के रूप की महिमा सुनी तो उसे पाने के लिए ललचा उठा । उसने इस बारे में छानबीन की कि श्रेष्ठी जिनदास अपनी पुत्री के लिए कैसा वर चाहते है तो. उसे मालूम हुआ कि वर का जिनधर्मानुयायी होना अत्यावश्यक है । अत: सुभद्रा को पाने के लिए बुद्धदास कपटी श्रावक बन गया । 'जिनदास' ने बहुत ही पैनी दृष्टि से छानबीन की, परन्तु 'बुद्धदास' का नकलीपन नहीं समझ सका । उसे सच्चा जैनधर्मावलम्बी और धर्मनिष्ठ समझकर उसके साथ 'सुभद्रा' का विवाह कर दिया। ससुराल आते ही पति बुद्धदास तथा सास और ननद का व्यवहार देखकर 'सुभद्रा' समझ गई कि मेरे साथ धोखा हो गया। पर अब क्या हो सकता था? पति-पत्नी के मध्य भेद की दीवार विधर्मिता के कारण सुहागरात की मिलनबेला में ही खिंच गई। उनके बीच भेद की खाईं हो गयी । वह खाईं सास और ननद के व्यवहार से और भी चौड़ी होती गयी। सास और ननद मन ही मन कुढ़ने लगीं। 'सुभद्रा' को कैसे नीचा दिखाया जाये, यही षड्यन्त्र रचा जाने

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