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जैन कथा कोष
राजा सहित सभी नगरवासियों की स्थिति बन्दी जैसी हो गई । वे अपने नगर में ही बन्दी हो गये। नगर से बाहर नहीं निकल सकते थे। सब प्रयत्न विफल देखकर लोग सोचने लगे - लगता है अब सबको अन्दर ही दम छुटकर मरना पड़ेगा |
उसी समय आकाशवाणी हुई— कोई सती कच्चे धागे से चलनी बाँधकर यदि कुएं से पानी निकाले और उस जल से दरवाजे पर छींटें लगाये तो द्वारा खुल सकते हैं।
राजा ने सारे नगर में घोषणा करवा दी कि कोई भी सती आगे आकर नागरिकों का यह संकट मिटाये। जो महासती यह कार्य करके दिखायेगी, राजा उसे राजकीय सम्मान देगा ।
जिसने भी यह घोषणा सुनी वही अपने आपको सती प्रमाणित करने को ललचा उठी। पूर्व दिशा के द्वार के समीपवर्ती कुएं पर स्त्रियों का जमघट लग गया। कुएं में छलनियों का ढेर लगा गया पर कुएं से जल निकालने में सफल कोई नहीं हो सकी।
जब चारों ओर निराशा छा गई तब सुभद्रा ने सास से अनुमति मांगी। सास को क्रुद्ध होना ही था। जो कुछ कहा उसे सती ने आशीर्वाद ही माना । कुएं के पास आकर छलनी को कच्चे धागे से बांधकर कुएं से जल निकालकर सबको चकित कर दिया। चारों ओर विस्मय, कौतूहल और हर्ष छा गया। सबके देखते-ही-देखते तीन दरवाजों को पानी के छींटे मारकर खोल दिया। चौथा द्वार यह कहकर छोड़ दिया — कोई पीहर ससुराल गई हुई सती हो तथा वह आकर खोलना चाहे तो खोल देगी, उसकी भी परीक्षा हो जायेगी ।
द्वार खुलते ही नागरिकों में अपूर्व उल्लास छा गया। सबने सती का बहुतबहुत आभार माना। सती का असली रूप पहचाना। राजा ने भी बहुत सम्मान देकर अपने कर्त्तव्य का पालन किया ।
इस घटना का जब 'बुद्धदास', उसके माता-पिता तथा बहन को पता चला तो उन्हें बहुत दुःख हुआ । मन-ही-मन बहुत लज्जित हुए तथा सोचा कि अब हम लोगों को मुंह कैसे दिखायेंगे? जिसको हमने तीन दि सहले यों कलंकित किया था, उसका सतीत्व सबके सामने इस प्रकार निखर आया। अब अपने अपराध की माफी मांगने के सिवा और रास्ता ही क्या था? हाँ, इतना अवश्य