________________
जैन कथा कोष ३४७ बना सोचने लगा—'ऐसी विचित्र परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए?' इतने में उसे एक युक्ति सूझ गयी।
सहसा उदास बनकर और विनम्र होकर बोला—'पुरोहितनीजी ! मेरे धन्य भाग्य हैं कि आपने मुझे याद किया और यह अलभ्य अवसर मुझे दिया। पर करूं क्या? मजबूर हूं। अपनी कमजोरी आपके सामने रखते हुए शर्म आती है।' लज्जा से मुंह नीचे करता हुआ बोला—'मैं तो नपुंसक हूं, पुरुषत्वहीन हूं। मेरे से आपकी इच्छा पूरी नहीं हो सकेगी। इसलिए मुझे माफ करें।' 'कपिला' ने सेठ की बात को सच समझा । गुस्से में आकर उसे वापस लौटा दिया। सेठ ने सोचा चलो, बला टली। - -
कुछ दिनों बाद नगर में कौमुदी महोत्सव था। उस दिन नगर के सभी लोग अपने-अपने परिवार सहित नगर के बाहर आमोद-प्रमोद मनाने जा रहे थे। सेठ सुदर्शन भी अपने चारों पुत्रों और पत्नी 'मनोरमा' के साथ जा रहा था। पुरोहितानी कपिला और महारानी अभया ने कामदेव के समान उन पुत्रों को देखकर दासी से पूछा—'ये पुत्र किसके हैं?'
दासी ने बताया कि ये सेठ 'सुदर्शन' के पुत्र हैं। सुदर्शन का नाम सुनते ही कपिला का क्रोध भभक उठा। मेरे से धोखा करके चला गया। मुझसे कहा था कि मैं नपुंसक ह फिर ये पुत्र फिर कैसे हुए? जल्दी से जल्दी सेठ को झूठ बोलने का फल दिलवाना है। कपिला ने महारानी अभया को सारी आपबीती सुनाकर उसे विचलित करने को उकसाया।
रानी ने अपनी 'पंडिता' नामक दासी को सेठ को महलों में लाने के लिए कहा। पंडिता पहरेदारों पर विश्वास जमाने के लिए सेठ जैसी एक मिट्टी की मूर्ति कपड़े से ढककर महलों में लाने लगी। पहरेदारों ने जब टोका तो उसने झल्लाते हुए उसको वहीं पटक दिया। गिरते ही वह टूट गई। पहरेदार रानी जी के भय से कांपने लगे। पंडिता से सिर्फ इस एक बार के लिए अपने बचाव की प्रार्थना की। यों पंडिता ने सब पहरेदारों पर रौब गांठकर अपना मार्ग निष्कंटक कर लिया।
जब किसी को रोकने का खतरा नहीं रहा, तब एक दिन पौषध में बैठे 'सुदर्शन' सेठ को सिर पर उठा लायी। रानी ने भोग-प्रार्थना की। किंतु सेठ ध्यान में बैठ गया। 'अभया' कुपित हो उठी। 'त्रिया-चरित्र बिखेरकर राजा को बुलाया और स्वयं बिसूर-बिसूरकर रोने लगी। । ।