Book Title: Jain Katha Kosh
Author(s): Chatramalla Muni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh prakashan

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Page 363
________________ ३४६ जैन कथा कोष ही सीखा है, हटना नहीं।' भावना बल से मुनि ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । सिंहनी ने मुनि के शरीर को बुरी तरह से नोच डाला। मांस और रक्त निर्घृण बनकर खाने लगी । अपने प्राण-प्यारे पुत्र के रक्त को पीते-पीते सिंहनी को जातिस्मरणज्ञान हो गया। पूर्वभव देखा तो अपने-आपको धिक्कारने लगी — 'छि:-छि: ! जिस पुत्र के मोहवश मैं मरी थी, उसी पुत्र को यों निर्ममता से मैंने मारा । धिक्कार है मुझे । यों भावविह्वल हो उठी। पश्चात्ताप करते हुए उसने वहीं आमरण अनशन किया। भावों विशुद्धि करके तथा शान्त भाव से अपने शरीर को छोड़कर आठवें स्वर्ग में गई । इस प्रकार मनुष्य-जीवन भले ही बिगाड़ा, परन्तु पशु-जीवन को सुधार लिया । 'कीर्तिधर' मुनि ने यह सब कुछ देखा और समता से सहा । अपने आत्मभाव से विचलित नहीं हुए । अन्त में उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त करके निर्वाण प्राप्त किया । - त्रिषष्टि शलाकपुरुष चरित्र, पर्व ७ २०२. सुदर्शन सेठ 1 'अंगदेश' के प्रमुख नगर 'चम्पा' का स्वामी महाराज 'दधिवाहन' था। उसकी महारानी का नाम 'अभया' था। उसी नगरी में एक सुन्दर रूप- सम्पदावाला सेठ था जो कि 'सुदर्शन' के नाम से प्रसिद्ध था । 'सुदर्शन' का सुगठित और सुडौल शरीर, चेहरे की अनूठी आभा सबको प्रिय तथा मोहक लगती । उसके घर में अपार धन था, फिर भी वह अपनी सम्पत्ति सत्यवादिता, धर्मप्रियता, शीलवत्ता और गुणवत्ता को गिनता था । अन्यान्य गुणों के साथ-साथ सुदर्शन के शील की महिमा प्रमुख रूप से चारों ओर फैली हुई थी । महाराज ने भी उसे सुयोग्य 'नगरसेठ' का पद दे रखा था । सेठ सुदर्शन का एक मित्र था – 'कपिल पुरोहित'। उसकी पत्नी का नाम 'कपिला' था । कपिला ने एक दिन सुदर्शन को देख लिया । उसके रूप-सौन्दर्य पर वह अपना भान ही भूल बैठी और उससे सहवास करने की इच्छा करने लगी । मौका देखकर उसने अपनी दासी को उसे घर ले आने के लिए कहा। सेठ भ्रमवश दासी की बात को पूरी नहीं समझा और उसके साथ घर आ गया। कपिला ने शानदार स्वागत करके अपनी मनोभावना स्पष्ट रूप से सेठ के सामने रख दी। कपिला की बात सुनकर सेठ अवाक् रह गया। भौंचक्का-सा

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