Book Title: Jain Katha Kosh
Author(s): Chatramalla Muni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh prakashan

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Page 361
________________ ३४४ जैन कथा कोष .. चढ़ाई की। भीषण संग्राम हुआ। अन्त में 'रावण' को मारकर और सीता को लेकर राम-लक्ष्मण विजयी बनकर आये। लक्ष्मण-राम के वासुदेव-बलदेव के पद का अभिषेक अयोध्या में किया गया। सीता सानन्द रहने लगी। राम की अन्य रानियों ने षड्यन्त्र रचा, जिससे नगर में सीता के सतीत्व को सन्देह की दृष्टि से देखा जाने लगा। 'रावण' के यहाँ इतने लम्बे समय तक 'सीता' का रहना प्रश्नचिन्ह बन गया। वातावरण को यहाँ तक दूषित कर दिया गया कि श्री राघव ने सीता को सेनापति द्वारा वन में छुड़वा दिया। कलंकिता तथा असहाय बनी सीता को 'पुंडरीकिणी' नगरी का महाराज 'वज्रजंघ' धैर्य बंधाकर अपने यहाँ ले गया। वहाँ वह सानन्द रहने लगी। सीता ने वहाँ दो पुत्रों को जन्म दिया, जिनका नाम लव-कुश रखा गया। बड़े होने पर बात का भेद पाकर लव-कुश दोनों भाई 'अयोध्या' पर चढ़ आये । सेनापति इनके सामने टिक नहीं सका । 'राम-लक्ष्मण' के शस्त्रों ने भी इन पर वार करने से उत्तर दे दिया। तब 'राम' को लगने लगा—अब राज्य तो जाएगा ही, पराजय का अपयश भी झेलना पड़ेगा। यों चिन्तित होते रामलक्ष्मण को नारद ऋषि ने समझाया और सम्पूर्ण भेद बताया कि ये दोनों सीताजी के पुत्र हैं। तब युद्धस्थल प्रेमस्थल में बदल गया। पिता-पुत्र परस्पर मिले। सीता का कलंक मिटाने के लिए अग्निस्नान की व्यवस्था की गई। हजारों दर्शकों के सामने अग्निकुंड में सीता 'परमेष्ठी' महामंत्र का जाप करती हुई कूद पड़ी। अग्नि सहसा जल में परिवर्तित हो गई। अग्निकुंड सरोवर बन गया। उस पर जल एक सिंहासन बना। उस पर बैठी सीता सत्यशील की साक्षात् मूर्तिसी खिल रही थी। चारों ओर बस एक ही आवाज थी—'जय हो सीता माता की।' इस प्रकार महासती 'सीता' का सतीत्व सबके सामने निखर उठा। राम ने महलों में चलने के लिए बहुत आग्रह किया। पर 'सीता' ने श्री 'राम' की अनुमति प्राप्त करके संयम स्वीकार कर लिया। . संयम को पालकर बारहवें स्वर्ग में इन्द्र के रूप में अवतरित हुई तथा 'सीतेन्द्र' कहलाई। आगे जाकर रावण जब तीर्थकर होगा, उस समय सीता का जीव उसका गणधर होकर निर्वाण प्राप्त करेगा। —त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व ७

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