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जैन कथा कोष ३४५
२०१. सुकोशल मुनि ___ 'अयोध्या' नगरी के महाराज 'कीर्तिधर' की महारानी का नाम 'सहदेवी' था। 'सहदेवी' ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम 'सुकोशल' रखा गया । 'सुकोशल' जब बालक ही था, तभी 'कीर्तिधर' उसको अपना राज्य सौंपकर स्वयं संयमी बन गया। 'सुकोशल' अयोध्या का कुशल शासक बना। उधर 'कीर्तिधर' मुनि मास-मास का तप करते हुए एक बार आहार लेने 'अयोध्या' में आये। नगर में भिक्षा के लिए उन्हें घूमते देखकर राजमहल में बैठी राजमाता को क्रोध आ गया। सोचा—ऐसा न हो कि इनके संपर्क से मेरा पुत्र सुकोशल भी मुनि बन जाए। यदि पुत्र भी पिता की भांति साधु बन गया तो मैं पीछे अकेली क्या करूंगी? इससे अच्छा तो यही होगा कि मुनि को नगर से बाहर निकलवा दूं। न सुकोशल को इनकी संगति मिलेगी और न प्रवजित होगा।
यह सोचकर रानी सहदेवी ने कोतवाल को आदेश दिया कि उस साधु को जल्दी से जल्दी नगर से बाहर निकाल दो। जब महारानी ने ही अपने सांसारिक नाते के पति का यह सत्कार किया तो राजसेवकों के तो मुनिवर लगते ही क्या थे ! बलपूर्वक मुनि को नगर से बाहर ले गये। धायमाता को जब यह सारा भेद पता लगा, तब उसने रोते-चीखते सारी बात महाराज सुकोशल से कही। महाराज 'सुकोशल' धायमाता की बात सुनकर अवाक् रह गया। उन्हें बहुत दुःख हुआ। नगर के बाहर आकर मुनि को छुड़वाया। पिता के प्रति किये गये माता के व्यवहार से 'सुकोशल' का मन खिन्न हो उठा और तुरन्त उसी क्षण संयम ले लिया। ‘सहदेवी' विलाप करती हुई आर्तध्यान में मरकर एक वन में सिंहनी बनी।
एक बार कीर्तिधर और 'सुकोशल' मुनि ने पर्वत की गुफा में चातुर्मास किया। कार्तिकी पूनम के दिन चातुर्मासिक तप का पारणा करने नगर की ओर बढ़ रहे थे। इतने में भूख से बेहाल हुई वह सिंहनी मुनि-युगल पर झपट पड़ी। 'सुकोशल' मुनि को देखकर उसका पूर्व वैर जागा। मारणान्तिक उपसर्ग आया हुआ देखकर 'सुकोशल' मुनि ध्यान में लीन होने लगे, तब कीर्तिधर मुनि ने चाहा—'वह पीछे आ जाएं और इस उपसर्ग के सामने वे खुद डटें।' पर 'सुकोशल' मुनि यों कहकर वहीं डटे रहे—'मैं क्षत्रियवंशी हूं, मोर्चे पर डटना