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३४८ जैन कथा कोष
राजा ने आश्वासन देकर कारण जानना चाहा, तब वह बोली—'आपने जिस दुष्ट को नगरसेठ बना रखा है, वह धूर्त मौका देखकर मेरे महलों में चला आया और मेरे साथ बलात्कार करने का प्रयास करने लगा। मैंने उसे फटकारा
और आपसे शिकायत करके दण्ड दिलवाने की धमकी दी, तब वह धूर्त शिरोमणि अपना पल्ला छुड़ाकर भागने लगा। मैंने पकड़ा तब ढोंगी इस प्रकार बैठ गया। हाय-हाय ! मेरा जीवन भी कोई जीवन है, जो यों पर-पुरुष आकर मेरे शरीर को छूकर भ्रष्ट कर जाते हैं। अब तो मुझे अपने प्राणों का परित्याग करना पड़ेगा। इसके सिवा मेरे लिए कौन-सा रास्ता शेष है? परन्तु प्राणनाथ ! आपके शासन में कितना अंधेर है ! जब राजमहल में भी सतियों का सतीत्व सुरक्षित नहीं रह सकता, तब दूसरी बेचारी स्त्रियों की तो बात ही क्या? उनके रक्षक तो भगवान् ही हैं।'
रानी की बातों से राजा को भी बहुत क्रोध चढ़ा। तत्क्षण सेठ को पकड़वाकर रानी के सामने ही कटु शब्दों में फटकारकर जल्लाद को आदेश दिया—'इस दुष्ट को शूली पर चढ़ा दो।'
नगरसेठ सुदर्शन को शूली का आदेश सुनकर नगर में हाहाकार मच गया। सेठ के पारिवारिक जन भी विलाप करने लगे। फिर भी सेठ समता में लीन था। किसी भी प्रकार का मन में भय नहीं था। धर्मध्यान में लीन बने सेठ को हजारों दर्शकों के सामने शूली पर चढ़ा दिया गया। सेठ 'परमेष्ठी मन्त्र' के - ध्यान में लीन था। सत्य और शील के प्रभाव से सहसा शूली की जगह पर सिंहासन बन गया। सेठ सिंहासन पर प्रसन्न मुद्रा में बैठा सबको दिखाई देने लगा।
शूली को सिंहासन के रूप में परिवर्तित सुनकर राजा दिग्मूढ बन गया। भयाकुल बना तत्क्षण वहाँ पहुँचा। सेठ को प्रणाम किया। अपने कृत अपराध की माफी चाही। सारी बात सच-सच कहने के लिए सेठ से कहा। सेठ ने 'अभया' के लिए अभयदान का वचन लेकर सारी बात सही-सही राजा को बताई। अपना पाप प्रकट होते ही अभया भयभीत हो गई। दण्ड के भय से वह स्वयं ही महलों से नीचे कूद पड़ी और गिरकर मर गई और मरकर व्यन्तरी हुई। पंडिता दासी वहाँ से भागकर पाटलिपुत्र नगर में देवदत्ता वेश्या के यहाँ रहने लगी।
सेठ का सुयश चारों ओर फैला। कुछ समय पश्चात् सेठ सुदर्शन मुनि