________________
जैन कथा कोष ३३५
महावीर ने कहा- ' 'जीव न एक प्रदेश को कहा जाता है, न दो, तीन, चार को। यावत् संख्यात प्रदेश वाले को जीव कहा जाता है; यहाँ तक कि अखण्ड चेतन द्रव्य में एक प्रदेश कम को भी जीव नहीं कहा जाता। असंख्यात प्रदेशी अखण्ड चेतन द्रव्य ही जीव कहलाता है। '
तिष्यगुप्त ने सोचा- ' अन्तिम प्रदेश के बिना शेष प्रदेश जीव नहीं है । अतः जीव का अन्तिम एक प्रदेश ही जीव है ।' गुरु ने उसे बहुत समझाया पर वह अपने आग्रह पर अड़ा रहा। तब उसे संघ से अलग कर दिया गया ।
अपनी बात का पुरजोर प्रचार करता हुआ तिष्यंगुप्त 'आमलकल्पा' नगर में आया। वहाँ अंबशाल वन में ठहरा। नगर में मित्रश्री नाम का एक श्रमणोपासक था । 'मित्रश्री' जान गया कि ये मिथ्या प्ररूपणा कर रहे हैं, फिर भी प्रतिदिन प्रवचन में आता । एक दिन उसके जीमनवार था । 'मित्रश्री' तिष्यगुप्त को अपने यहाँ भोजन देने के लिए ले गया । विविध प्रकार की सामग्री उसने उसके सामने रखी, पर दिया सबका बहुत छोटा-छोटा टुकड़ा । इसी प्रकार चावल का एक दाना, घास का एक तिनका ( शय्या के लिए), वस्त्र का एक तार मित्रश्री ने तिष्यगुप्त को दिया । तिष्यगुप्त अवाक् बना देखता रहा । सोचा, पूरी सामग्री बाद में देगा । इतने में मित्रश्री वन्दन कर बोला- 'मैं धन्य हूं। आपने मुझे निहाल कर दिया। दान देने का आज मुझे अच्छा अवसर मिला।' इतना सुनते ही तिष्यगुप्त गुस्से में आकर बोला- 'मेरा यों तिरस्कार करने के लिया लाया था क्या? देना कुछ नहीं था तो लाया ही क्यों ?
मित्रश्री ने नम्रता से कहा- 'भला मैं आपका तिरस्कार कैसे कर सकता हूं? मैंने प्रचुर मात्रा में आपको भिक्षा दी है। हाँ, इतना अवश्य है, भिक्षा दी है आपके सिद्धान्तानुसार, न कि भगवान् महावीर के सिद्धान्तानुसार । क्योंकि आप अन्तिम प्रदेश को ही वास्तविक मानते हैं, शेष को नहीं। मैंने भी पदार्थ का अन्तिम भाग ही दिया है, शेष नहीं । इतने से आप अपनी भूख मिटा लीजिये ।' अब तिष्यगुप्त की समझ में अपनी भूल आ गई। मिथ्या धारणा से दूर हटे और पुनः संघ में सम्मिलित हो गये ।
आचार्य आषाढ़ के शिष्य
श्वेताम्बिका नगरी के पोलास उद्यान में आचार्य आषाढ़ अपनी शिष्यमण्डली सहित ठहरे हुए थे । उरा समय वे ही एक वाचनाचार्य थे। अपने