Book Title: Jain Katha Kosh
Author(s): Chatramalla Muni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh prakashan

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Page 353
________________ ३३६ जैन कथा कोष शिष्यों को योगाभ्यास करा रहे थे। एक दिन सहसा हृदयशूल के रोग से आचार्य आषाढ़ दिवंगत हो गये। 'सौधर्म कल्प' के 'नलिनीगुल्म' विमान में वे उत्पन्न हुए। वहाँ अवधिज्ञान से देखकर सोचा- शिष्यों को मेरी मृत्यु की जानकारी नहीं है। उनकी योग-साधना अधूरी रह जायेगी । यों सोचकर उसी शरीर में पुनः प्रविष्ट हो गये । यथासमय शिष्यों को जगाया, सभी योग-साधना में लग गये । योग-साधना जब सम्पन्न हुई, तब देव ने प्रकट होकर कहा - ' श्रमणो ! मुझे क्षमा करें। मैंने असंयमी होते हुए संयमात्माओं से वन्दना करवाई।' यों अपनी मृत्यु की सारी बात कहकर चले गये । 1 पीछे से सन्तगण सन्देहशील हो गये । हममें से भी कौन साधु है और कौन देव — निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। क्या पता हम सब में भी ऐसा कोई और हो ? अन्य स्थविरों ने उन्हें बहुत समझाया, पर वे अपनी बात पर अड़े रहे। उन्हें संघ से अलग कर दिया गया । एक बार वे विहार करते हुए 'राजगृह' आये। वहाँ मौर्यवंशी राजा 'बलभद्र' श्रमणोपासक था। उसने उन्हें समझाने का अद्भूत तरीका अपनाया— अपने यहाँ उन सबको बुलवाकर सेवकों से उन्हें कोड़े मारने के लिए कहा। चार पुरुष हाथी को मारने वाले कोड़े ले आये । साधुओं ने कहा— 'राजन् ! तुम श्रावक होकर हम साधुओं को ताड़ना दोगे ?' राजा ने कहा—' क्या पता महाराज? मैं श्रावक हूँ या नहीं, आप साधु हैं या नहीं, निश्चयपूर्वक कौन कह सकता है?' श्रमण चौंके। राजा ने कहा— 'आप इस अव्यक्तवाद का प्रसार ही तो कर रहे हैं । ' सन्त समझ गये। अपने अज्ञान पर खेद हुआ। राजा ने क्षमायाचना करते हुए कहा -' -'मैंने आपको प्रतिबोध देने के लिए ही ऐसा किया था । ' अश्वमित्र 'मिथिला नगरी के लक्ष्मीगृह चैत्य में आचार्य महागिरि विराजमान थे । उनके शिष्य का नाम था 'कौण्डिन्य' तथा प्रशिष्य का नाम था 'अश्वमित्र' | अश्वमित्र दसवें विद्यानुवाद पूर्व के 'नैरयुणिकवस्तु' (अध्याय) का अध्ययन कर रहा था। वहाँ प्रसंग आया - 'पहले समय में उत्पन्न सभी नैयायिक दूसरे समय में विच्छिन्न हो जायेंगे, दूसरे वाले तीसरे समय में। यों सभी जीव नष्ट हो जाते हैं।' यह पढ़कर अश्वमित्र का मन शंकाकुल हो गया । उसने सोचा—

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