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३३८ जैन कथा कोष
अब आचार्य गंग अकेले विचरने लगे। विहार करते हुए वे राजगृह में आये। वहाँ 'महातप:तीर' नाम का एक झरना था। उसके समीप ही 'मणिप्रभ' नामक चैत्य में ठहरे। परिषद् में आचार्य गंग अपने द्वैक्रियावाद का प्रतिपादन कर रहे थे। तब मणिनाग ने प्रकट होकर कहा—"तुम असत्य प्ररूपणा क्यों कर रहे हो? क्या तुम भगवान् से भी अधिक ज्ञानी हो गये हो? इस असत्य प्ररूपणा को छोड़ो, अन्यथा तुम्हारा कल्याण नहीं होगा।"
मणिनाग की बात सुनकर आचार्य गंग मन में कंपित हुए। सोचा, मेरा चिन्तन सही नहीं है। आचार्य के पास आये और प्रायश्चित कर संघ में सम्मिलित हो गये। रोहगुप्त
'अतिरंजिका' नगरी के महाराज का नाम था 'बल्लश्री'। वहाँ भूतगृह नामक चैत्य में आचार्य श्रीगुप्त ठहरे हुए थे। उनका संसारपक्षीय भानजा 'रोहगुप्त' उनका शिष्य था। एकदा वह दूसरे गाँव से आचार्य को वन्दना करने आया हुआ था। __उन्हीं दिनों वहाँ एक परिव्राजक था जिसका नाम था 'पोटशाल'। वह अपने पेट पर लोहे की पट्टी बाँधकर हाथ में जम्बू वृक्ष की टहनी लिये घूमा करता था। पट्टी बाँधने और शाखा हाथ में लिये रहने का कारण बताते हुए वह कहा करता—'ज्ञान के भार से मेरा पेट न फट जाए, इसलिए मैं अपने पेट को लोहे की पट्टियों से बाँधे रहता हूँ तथा इस समूचे जम्बूद्वीप में मेरा प्रतिवाद करने वाला कोई नहीं है, अतः जम्बूद्वीप की शाखा को हाथ में लिये घूमता हूँ।' वह सभी धार्मिकों को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती देता रहता । इस गाँव में भी चुनौती का पटह फेरा । 'रोहगुप्त' ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली। आचार्य को सारी बात कही। आचार्य ने कहा—'वत्स ! तूने अच्छा काम नहीं किया।'
फिर भी रोहगुप्त राजसभा में शास्त्रार्थ के लिए गया। परिव्राजक ने पक्ष स्थापित करते हुए कहा—राशि दो हैं—जीव राशि और अजीव राशि। अब यदि उसकी बात को हाँ कहते तो इसका तात्पर्य होता उसके पक्ष को स्वीकार कर लिया और पक्ष को स्वीकार का अर्थ था—पराजय । अतः बोले-नहीं, राशि तीन हैं—जीव राशि, अजीव राशि और नोजीव राशि। तीनों राशियों की स्थापना करते हुए रोहगुप्त ने कहा—'नारक, तिर्यंच, मनुष्य आदि जीव हैं,