Book Title: Jain Katha Kosh
Author(s): Chatramalla Muni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 358
________________ जैन कथा कोष ३४१ संघ ने कहा—तीर्थकर के पास जाओ और पूछो कि जो गोष्ठामाहिल कह. रहा है वह सत्य है या दुर्बलिका पुष्यमित्र आदि संघ का कहना सत्य है? देवता ने कहा—मुझ पर अनुग्रह करें। मेरे गमन में कोई प्रतिघात न हो, इसलिए आप कायोत्सर्ग करें। सारा संघ कायोत्सर्ग में बैठ गया। देवता ने तीर्थकर से पूछा और आकर बताया—संघ जो कह रहा है वह सत्य है, गोष्ठामाहिल का कथन असत्य है। सारा संघ पुलकित हुआ। गोष्ठामाहिल बोला—इस बेचारे में ऐसी कौन-सी शक्ति है जो वह तीर्थकर से जाकर पूछे? सभी ने उसे बहुत समझाया, पर वह नहीं समझा। अन्त में आचार्य ने कहा—'तुम अपने सिद्धान्त पर पुनर्विचार करो, अन्यथा संघ में नहीं रह सकोगे।' गोष्ठामाहिल का आग्रह पूर्ववत् रहा। तब संघ ने उसे बहिष्कृत कर दिया। इन सात निन्हवों में जमाली, रोहगुप्त तथा गोष्ठामाहिल—ये तीन तो अन्त तक अलग ही रहे और अन्य चार संघ में मिल गए। -ठाणांग वृत्ति ७ १६८. सालिहीपिता 'सालिहीपिता' सावत्थी नगरी में रहने वाला एक ऋद्धि सम्पन्न गाथापति था। इसकी पत्नी का नाम था 'फाल्गुनी'। 'सालिहीपिता' चार गोकुल तथा बारह कोटि स्वर्णमुद्राओं का मालिक था। भगवान् महावीर से इसने श्रावक धर्म स्वीकार किया। दोनों अपना जीवन सानन्द बिता रहे थे। सालिहीपिता की प्रेरणा से उसकी धर्मपत्नी ने भी श्राविका व्रत स्वीकार किये। ऐसा करते-करते चौदह वर्ष का समय व्यतीत हो गया। एकदा सालिहीपिता के मन में विचार आया—'मैं इस प्रकार घर का भार कब तक ढोता रहूंगा? बैल की तरह पच-पचकर मरने के लिए मनुष्य-जीवन थोडे ही मिला है?' चिन्तन ने बल पकड़ा। अपने घरेलू कार्य-भार से मुक्त होकर पौषधशाला में जाकर धर्मध्यान में समय लगाने लगा। सारा गृह-भार ज्येष्ठ पुत्र को संभला दिया। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का सकुशल वहन किया। श्रमणभूत जीवनयापन करने लगा। तप:चर्या के द्वारा शरीर कृश हो गया। तब उसने अनशन स्वीकार किया। एक मास के अनशन से समाधिपूर्वक

Loading...

Page Navigation
1 ... 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414