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जैन कथा कोष २४६ करते हुए वे भीलपल्ली में जा पहुँचे और बंकचूल से स्थान की याचना की । बंकचूल ने आचार्य को इस शर्त पर स्थान दिया कि वे कोई धर्मोपदेश न देंगे। चातुर्मास पूर्ण करके जब आचार्य चन्द्रयश चलने लगे तो बंकचूल को प्रेरणा देते हुए चार बातें कहीं
(१) कभी भी बिना जाना हुआ फल न खाना ।
(२) सात-आठ कदम पीछे हटे बिना किसी पर प्रहार न करना । (३) राजा की अग्रमहिषी को माता के समान मानना ।
(४) भूलकर भी कौवे का माँस न खाना ।
बंकचूल ने इन नियमों को जीवन-भर पालने का संकल्प कर दिया । एक बार बंकचूल अपने साथियों सहित किसी गाँव को लूटने गया, लेकिन उसे कुछ भी हाथ न लगा, निराश लौटा। रास्ते में गर्मी के कारण उन सबके होंठ सूखने लगे, प्राण कंठ में आ गये। पेड़ों पर बड़े सुन्दर फल दिखाई दिये । उसके सभी साथियों ने वे फल खा लिये, लेकिन नियम के कारण उसने और उसके एक साथी ने नहीं खाये । वे विष-फल थे। जिन्होंने ये फल नहीं खाये, वे ही जीवित बचे, शेष सब मरण-शरण हो गये। बंकंचूल ने नियम का परिणाम देख लिया। उसे मुनिश्री के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई।
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घर पहुँचकर देखा तो उसकी पत्नी किसी पुरुष के साथ सोयी हुई है। उसे क्रोध आना ही था। म्यान से तलवार निकाल ली। उसी समय दूसरा नियम याद आया—सात-आठ कदम पीछे हटकर वार करना । वह सात-आठ कदम पीछे हटा तो तलवार दरवाजे से टकराई। आवाज होते ही पुरुष उठ बैठा और बोला- भैया ! तुम आ गये, बड़ा अच्छा हुआ। पूछने पर बहन ने बताया- आपके जाने के बाद राजा के गुप्तचर नट का वेश बनाकर आये थे। उन्हीं के कारण मैंने पुरुष वेश बनाया था । उन्हें दक्षिणा आदि देकर विदा करने में रात काफी हो गई। मेरी आँखों से नींद गहरा रही थी, इसलिए बिना वेश बदले ही सो गई ।
बंकचूल की श्रद्धा आचार्यश्री के प्रति और बढ़ गई। उसने नियम पालन का महत्त्व समझ लिया ।
एक बार बंकचूल चोरी करने राजमहल में पहुँचा । वहाँ राजा की अग्रमहिषी उस पर आसक्त हो गई। लेकिन बंकचूल ने उसे माता मानकर भोग-प्रार्थना ठुकरा दी। राजा यह सब छिद्र में से देख रहा था। उसने उसे अपने