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जैन कथा कोष २५६ त्रिदंडी तापस बन गया। विशेष बात यह रही कि तापस के वेश में भी भगवान् आदिनाथ द्वारा प्रतिवादित जैन धर्म के सिद्धान्तों का जनता को उपदेश देता। जो विरक्त हो जाता, उन सिद्धान्तों के प्रति आकर्षित होता, उसे भगवान 'ऋषभदेव' के पास भेज देता। __यों करते-करते एक बार 'मरीचि' अस्वथ हुआ। उस समय उसके पास शिष्य न होने से सेवा करने वाला कोई नहीं था। तब उसमें अपना शिष्य बनाने की भावना जगी। अब कोई भी उपदेश लेने के लिए आता तो उसे मरीचि कहने लगा-मेरे पास भी धर्म का सच्चा तत्त्व है। ____ एक बार भगवान् ‘ऋषभदेव' समवसरण (धर्मसभा) में देशना दे रहे थे। देशना की समाप्ति पर महाराज 'भरत' ने पूछा-प्रभुवर ! इस विशाल परिषद् में आप जैसा महासमर्थ, सौभाग्यवान् और ऐसी सम्पत्ति पाकर तीर्थंकर हो सके, ऐसा कोई व्यक्ति है?
प्रभु ने कहा—इस सभा में नहीं, सभा के बाहर बैठा तुम्हारा ही पुत्र 'मरीचि' कुमार है, जो अभी त्रिदंडी तापस के वेश में है। वह इस अवसर्पिणी काल का अन्तिम तीर्थंकर 'महावीर' होगा। इतना ही नहीं, वह 'मरीचि' इस भरतक्षेत्र का और इस काल का 'त्रिपृष्ठ' नाम का प्रथम 'वासुदेव' तथा महाविदेहक्षेत्र में 'प्रियमित्र' नाम का चक्रवर्ती भी होगा।
महाराज 'भरत' अपने पुत्र के बढ़ते वर्चस्व को सुनकर पुलकित हो उठे। 'मरीचि' के पास आकर सारा संवाद सुनाया। 'मरीचि' का मन बाँसों उछलने लगा। कुल-मद में उछलता हुआ बोला—'मेरे कुल का क्या कहना? यह कितना श्रेष्ठ है ! मेरे दादा इस युग के प्रथम तीर्थंकर हैं। मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती हैं। मैं प्रथम वासुदेव बनूंगा। कुल का क्या, मुझे भी तो देखो। मैं अकेला ही वासुदेव बनूंगा, चक्रवर्ती भी बनूंगा तथा तीर्थंकर भी बनूंगा।'
यों कुल और गोत्र के मद में मरीचि बाग-बाग हो गया। यह भगवान् 'महावीर का तीसरा भव था। सत्ताईसवें भव में यही 'मरीचि' भगवान् महावीर
के रूप में चरम तीर्थंकर के रूप में पैदा होकर कर्मों का नाश करके मोक्ष में विराजमन हुए।
-आवश्यक मलयगिरि