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जैन कथा कोष २६६ वह राजा श्रीवर्म का अमात्य था । वहाँ 'सुव्रत' नाम के धर्माचार्य (जो कि भगवान् 'मुनिसुव्रत' स्वामी के हाथ से दीक्षित थे) के एक नवदीक्षित साधु के साथ उसने शास्त्रार्थ किया। शास्त्रार्थ में उसे मुँह की खानी पड़ी । पराजित व्यक्ति का गुस्सा भभक ही जाता है। मुनिवर से प्रतिशोध लेने रात्रि के समय तलवार लेकर हत्या करने मुनि के स्थान पर गया। ज्योंही तलवार लेकर क्रूर बना, मुनिवर पर वार करने लपका त्योंही शासनदेव ने उसे उसी रूप में चिपका दिया । उसका हिलना-डुलना भी बंद हो गया । पत्थर की भांति हाथ में तलवार लिये अपनी उस क्रूर मुद्रा में खड़ा रह गया । प्रातःकाल जब लोगों ने उसे देखा तब सभी विस्मित रहे। राजा को जब खबर लगी तब वह कुपित हुआ । उसे धिक्कार कर अपने राज्य की सीमा से निकाल दिया । वहाँ से निकलकर नमुचि यहाँ चक्रवर्ती का प्रधान बन गया । चक्रवर्ती ने एक प्रसंग पर प्रसन्न होकर 'नमुचि' से इच्छित वर माँगने को कहा । यथासमय माँगने का कहकर 'नमुचि' ने चक्रवर्ती के उस वर को भण्डार में सुरक्षित ही रखा।
संयोग की बात, वे ही 'सुव्रताचार्य' 'हस्तिनापुर' आये। 'नमुचि' ने यह संवाद सुना, तब बदला लेने को ललचा उठा। चक्रवर्ती के वर के फलस्वरूप सात दिनों के लिए चक्रवर्ती के राज्य का स्वयं अधिशास्ता बन बैठा । 'नमुचि' को और किसी से तो कुछ मतलब था नहीं । उसे तो केवल सन्तों को पीड़ित करना था। जबकि सन्तों का प्रभाव वह एक बार देख चुका था, फिर भी बुरा होना था, इसलिए बुरा सूझा ।
'नमुचि' ने एक बहुत बड़ा यज्ञ आरम्भ किया। सभी लोग चारों ओर से नयी-नयी भेटें लेकर नवशास्ता के पास आने लगे। 'सुव्रताचार्य' को क्यों आना था। वे तो सांसारिक झंझटों से सब विधि उपरत थे । 'नमुचि' ने उन्हें अपने यहाँ बुलाया। शासक की भाषा में पूछा—' भेंट लेकर आप क्यों नहीं आये? इसलिए या तो भेंट लाईये या मेरा राज्य छोड़कर चले जाईये। यदि रहे तो मैं चोरों की भांति आपका वध करा दूंगा।'
आचार्य चिन्ता में पड़ गये । छः खण्डों को छोड़कर जाएं तो जाएं भी कहाँ? पर इसे समझाये कौन ? आचार्य को 'विष्णुकुमार' मुनि की स्मृति हो आयी । मेरु पर्वत पर ध्यान करते हुए उन मुनि को एक साधु भेजकर बुलवाया गया । 'विष्णुकुमार' मुनि 'नमुचि' के पास गये। समझाना चाहा । पर लातों के देव बातों से कब मानने वाले थे ! अन्त में कहा कि चक्रवर्ती