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२७२ जैन कथा कोष एक ओर और भगवान् ‘महावीर' के कर्मों का भार एक ओर । उन सारे कर्मों के भार को उतारने का समय साढ़े बारह वर्ष ही तो था। अधिक क्या दीक्षा लेते समय शरीर पर चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों का जो विलेपन किया गया उसके योग से भी भृग, मधुमक्खियाँ आदि जन्तु चार मास तक प्रभु के शरीर में दंश लगाते रहे, खून चूसते रहे । प्रभु ने उन्हें उड़ाने का प्रयास तो दूर रहा, मन में विचार भी नहीं किया।
निर्जन झोंपड़ी, पानी की प्याऊ, लुहार की शाला, शून्य और खण्डहर मकान, गुफा, पर्वत, वृक्ष जैसा भी जो स्थान मिलता, उसमें ही प्रभु ध्यानस्थ हो जाते। कई बार स्थानों से निकाल भी दिया गया। पर फिर भी प्रभु समता से विचलित नहीं हुए। ___अनार्य क्षेत्रों में भी विहार किया। वहाँ भी अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा। आहार के स्थान पर मार और पानी के स्थान पर कटुवाणी के प्रहार मिलते । प्रभु को वहाँ कुत्तों से नुचवाया गया। पत्थरों से पीटा गया। फिर भी आत्मभाव में लीन रहकर प्रभु ने उन्हें कर्मनिर्जरा में अपना सहयोगी ही माना।
शलपाणि यक्ष का उपसर्ग भी अनूठा था। संगम देव भी छः महीनों तक प्रभु को कष्ट देता रहा। केवल एक ही रात्रि में संगम ने बीस मरणांतक कष्ट दिये। त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में जिस शय्यापालक के कानों में शीशा डलवाया था, वह यहाँ ग्वाला बना । उसने प्रभु के कानों में कील गाड़ दी, परन्तु प्रभु ने यह सब समभावपूर्वक सहा। ___ इन्द्र ने प्रार्थना की कि होने वाले कष्टों का निवारण करने के लिए मैं सेवा में रहूं या किसी देव को सेवा में रखना चाहता हूँ। तब प्रभु ने फरमाया-'साधक अपनी साधना अपने बलबूते पर ही किया करता है।'
'चण्डकौशिक' सर्प का कष्ट भी सहा। गोशालक ने भी प्रभु को संतापित करने में कमी नहीं रखी। तेरह बोल का जो भीषण अभिग्रह किया उसकी पूर्ति भी पाँच महीने पच्चीस दिन के बाद 'चन्दनबाला' के हाथ से
विविध प्रकार की ध्यान प्रतिमाएं, विचित्र प्रकार की तपस्याएं अपने छद्मस्थ काल में प्रभु करते ही रहे । तप:साधना में कम से कम दो दिन का व्रत तथा ऊपर में छह महीनों का निर्जल व्रत प्रभु ने किया। बारह वर्ष और