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३२० जैन कथा कोष
एक बार भगवान् महावीर 'सावत्थी' नगरी में पधारे। शंख- पोखली आदि अनेक श्रावक प्रभु के दर्शनार्थ गये । उपदेश सुनकर जब घर को लौटने लगे तब 'शंख' ने श्रावकों से कहा – आज चार ही प्रकार के भोजन तैयार करवाओ। हम सब लोग साथ भोजन करेंगे। बाद में पाक्षिक पौषध करके धर्मजागरण में अपना समय सफल बनायेंगे ।
'शंख' की कही हुई बात सबको जंच गयी। भोजन तैयार करवाया गया। सभी एकत्रित होकर 'शंख' के आने की प्रतीक्षा करने लगे ।
उधर घर आकर ‘शंख' की विचारधारा ने पलटा खाया। उसने सोचायों आरंभ-समारंभपूर्वक भोजन तैयार करके तथा पौष्टिक आहार करके पौषध करना उचित नहीं होगा । इसलिए मुझे तो पौषध करके धर्मजागरण करना चाहिए । यों विचार करके पत्नी से कहकर पौषधशाला में चला गया। सभी एकत्रित होकर शंख के आने की प्रतीक्षा करने लगे; वहाँ पौषध लेकर शंख आत्मभाव में तल्लीन हो गया ।
जब शंख वहाँ नहीं पहुँचा, तब 'पोखली' श्रावक सबके कहने से उसके घर पहुँचा। 'पोखली' श्रावक को अपने घर आया देखकर 'शंख' की पत्नी उत्पला ने उसे आदर-सत्कार दिया। जब पोखली को पता लगा कि शंख पौषध लिये हुए पौधशाला में बैठा है, तब पोखली पौषधशाला में गया। शंख को उलाहना देता हुआ बहुत कुछ कह सुनकर चला गया ।
दूसरे दिन 'शंख' ने प्रभु के दर्शन करके ही पौषध पूरा करने की सोची । प्रात:काल समवसरण में पहुँचा । 'पोखली' आदि श्रावक वहाँ भी उपस्थित थे। सभी ने कहा—' शंख ने हमारे साथ धोखा किया है । इसलिए वह निन्दा करने लायक है । '
तब प्रभु ने कहा - ' पोखली' ! 'शंख' निन्दा के योग्य नहीं है । वह तो दृढ़धर्मी है । प्रमादनिद्रा से दूर रहकर इसने अच्छी धर्म- जागरणा की है। सुदृष्ट जागरिका से जगा है । इसका चिन्तन कपटमयी नहीं, अपितु धर्ममय था ।
अब सब करें भी क्या ? सभी ने 'शंख' श्रावक से क्षमायाचना की ।
तब गौतम ने प्रभु से पूछा—' भगवन् ! सुदृष्ट जागारिका किसे कहते हैं?"
प्रभु ने फरमाया — गौतम ! जागरिका तीन प्रकार की होती है— बुद्ध जागरिका, अबुद्ध जागरिका और सुदृष्ट जागरिका । केवलज्ञानी भगवन्तों की बुद्ध जागरिका (अप्रमत्तता) कहलाती है। शेष असर्वज्ञ मुनियों की अप्रमत्तता